महात्मा बुद्ध और जैत्रसिंह | Mahatma Buddha and Jaitra Singh Story in Hindi

Mahatma Buddha and Jaitra Singh Story in Hindi

दोस्तों ज्ञानवर्धक सीख देने वाली कहानियों की श्रृंखला में हम लेकर आये हैं महात्मा गौतम बुद्ध की कहानी ‘महात्मा बुद्ध और जैत्रसिंह | Mahatma Buddha and Jaitra Singh Story in Hindi” जिसमे बताया की जैत्रसिंह पर गौतम बुद्ध के उपदेशों का क्या प्रभाव पड़ा और उसकी जान बच सकी। आइये जानते हैं ;

महात्मा बुद्ध और जैत्रसिंह
Mahatma Buddha and Jaitra Singh Story in Hindi

कोई 2500 बरस पहले की बात है। हिमालय पर्वत की तराई में कपिलवस्तु नामक एक राज्य था। राजा शुद्धोधन वहाँ राज करते थे। महात्मा बुद्ध, उन्हीं शुद्धोधन के पुत्र थे। उनकी माता का नाम महामाया था। महात्मा जी पहले ‘सिद्धार्थ’ और ‘गौतम’ के नाम से प्रसिद्ध थे। राजा शुद्धोधन की इच्छा थी कि हमारा पुत्र भी हमारे समान ही बलवान और हिम्मतवर हो, इसलिए और राजकुमारों के समान सिद्धार्थ को भी युद्धविद्या की शिक्षा दी जाती थी।

राजकुमार काम सीखते तो थे, पर उनका मन और ही कहीं रहता था। पढ़ने-लिखने और धर्मे की बातों पर विचार करने में ही अपना अधिक समय बिताते थे। अपने बगीचे के कोने में जाकर बैठ जाते और घन्टों सोच विचार करते रहते थे। वे सदा यही सोचा करते थे, संसार में जहाँ देखो, वहीं दुख का राज्य है, सुख तो आदमी केवल कहने भर को जानते है। तब क्या किया जाय कि मैं भी सुख पाऊँ और मेरे साथ दुनिया के सब लोग भी सुख पावें! यही सब साचते-सोचते सिद्धार्थ का मन दुनिया से दूर होता गया।

एक दिन राजकुमार सिद्धार्थ नगर में घूमने गए। रास्ते में उन्हें कई बूढ़े, रोगी और मुर्दे दिखाई दिए। उन्होंने उनकी हालत पर बहुत विचार किया। उनके मन में बिचार उठा कि एक दिन मेरी भी ऐसी हालत हो जायगी। मुझे भी ये दुःख उठाने पड़ेंगे। उफ! दुनिया के चारों ओर किस प्रकार दुःख का जाल बिछा हुआ है! उस जाल को तोड़ कर निकल भागना कितना कठिन है। तब तो अभी से होशियार हो जाना चाहिए।

उस दिन सिद्धार्थ को दुनिया से ऐसी घृणा हुई कि वे उससे दूर होने के लिए छटपटाने लगे। उसी दिन, रात को ये अपने माता-पिता, स्त्री-पुत्र, भाई-बन्धु सब से नेह-नाता तोड़, राजपाट का सारा सुख छोड़कर घर से निकल खड़े हुए। रास्ते में उन्होंने अपने सुन्दर रेशमी कपड़े त्याग दिये, गेरुचे कपड़े पहन लिये। सिद्धार्थ जी खासे सन्यासी बन बैठे। उस समय उनकी उम्र केवल तीस बरस की थी।

सिद्धार्थ पहले पटना पहुँचे और पास ही के एक गाँव में दो विद्वान ब्राह्मणों के पास कुछ दिन तक धर्म की पुस्तकें पढ़ते रहे, पर मन को शांति न मिली। तब वे गया के घने जंगल में चले गए। वहाँ छः बरस तक बढ़े-बढ़े कष्ट सहकर तप और ध्यान में लगे रहे। शरीर सूख कर काँटा हो गया, पर चित्त को शांति न मिली।

एक दिन विचार करते-करते उन्हें अहसास हुआ कि शांति से जीवन बिताने, सब पर दया और प्रेम करने से ही आदमी सुखी हो सकता है। मनुष्य के दुःख का कारण केवल इच्छा ही हैं, इसलिये इच्छा को ही मारना चाहिए। इस बात के सूभते ही सिद्धार्थ को बड़ी शान्ति मिली तभी से वे महात्मा बुद्ध के नाम से प्रसिद्ध हुए।

इसके बाद महात्मा जी सब लोगो को अपने विचार सुनाने लगे। लोगों ने उनकी बाते बहुत पसन्द की। लाखो आदमी उनके शिष्य बन गए। उसके शिष्य ‘बौद्ध’ और उसके विचार ‘बौद्ध धर्म’ के नाम से प्रसिद्ध हुए।

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Hindi Story of Mahatma Buddha and Jaitra Singh

एक दिन महात्मा जी अपने शिष्यों को उपदेश दे रहे थे। उसी समय उनके पास एक सुन्दर युवक आया। उसने हाथ जोड़कर महात्मा जी को प्रणाम किया और फिर उनसे कहा-‘‘भगवन्, संसार से मेरा मन ऊब गया है। लोग जिसे सुख कहते है, उसे मैं दुःख समझता हूँ। राज-पाट, घन-दौलत ये सब जंजाल ही तो हैं। अब मेरी इच्छा है कि मैं संन्यासी हो जाऊँ, आपकी सेवा में रहूँ और भगवान का भजन कर जीवन के बाकी दिन बिताऊँ। कृपा, कर आप मुुझे अपना शिष्य बना लीजिए। मैं बहुत दूर देश से आ रहा हूँ, कचम्ब देश का राजकुमार हूँ, जेत्रसिंह मेरा नाम है।

महात्मा बुद्ध ने उसे जवाब दिया-‘‘तुम्हारा विचार तो ठीक है, पर अभी तुम मेरे शिष्य होने योग्य नहीं। मैं तुम्हें शिष्य न बना सकूँगा।’’

इस पर जैत्रसिह ने घबड़ाकर उनसे पूछा-‘‘भगवन , यह आप क्या कहते हैं। में बड़ी आशा से आपकी सेवा में आया हूँ, मुझे निराश न कीजिए। बतलाइये मुझे क्या करना पढ़ेंगा, जिससे में आपका शिष्य हो सकूँ?’’

महात्मा जी मुसकुरा कर बोले-‘‘अच्छा सुनो, संन्यासी बनकर सुखी होने के लिए आदमी में ऊँचें गुण चाहिए। ईर्षा, बुराई और घृणा से बचना चाहिए। देखो तुम्हारे पिता के दरबार में तुम्हारा एक मित्र था। दरबार में एक आदमी आया और वह तुम्हारे मित्र से मेल जोल बढ़ाने लगा। तुम यह बात बर्दाश्त न कर सके। तुमने उससे घृणा की और
बेचारे को अपने मित्र से मित्रता न करने दी। सोचो तो वह आदमी तुम्हारे मित्र से प्रेम बढ़ा रहा था, इसमें तुम्हारी क्या हानि थी ! बेचारा दुखित होकर चला गया, अब वह तुमसे घृणा करता है।

दूसरी बात सुनो। एक बार तुम अपनी स्त्री पर जरा सी बात पर बिगड़ उठे। बेचारी कितनी रोई-गिड़गिड़ाई, पर तुम न पसीजे। तुमने उसे घर से निकाल कर ही चैन लिया।अब वह तुमसे दुखी रहती और घृणा करती है। जो आदमी, आदमी से घृणा करता है, उसे प्यार नहीं कर सकता, वह सन्यासी बनकर कैसे सुखी हो सकता है ?’’

जैत्रसिंह ने सिर झुका लिया और पिता के राज्य में लौट गया। जैत्रसिंह के पिता की मृत्यु हो चुकी थी। लोगों ने जैत्रसिंह को धूम धाम से राजा बनाया। जैत्रसिह राजा बन कर प्रेम से प्रजा का पालन करने लगा। प्रज्ञा भी उसे खूब चाहने लगी।

जैत्रसिह को बुद्ध देव की बातें लग गई थीं। अब उसने अपनी गलतियों को सुधारने का इरादा किया। पहले तो उसने उस आदमी को बुलबाया, फिर अपने अपराध की क्षमा माँगी। उसे एक सुन्दर महल रहने के लिए दिया और अपने मित्र सेउसकी मित्रता करा दी। फिर जैत्रसिंह ने अपनी रानी को भी बुलबा लिया और उसे बड़े प्रेम तथा आदर से अपने पास रखा।

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जैत्रसिह के ये काम देख कुछ मतलबी आदमी नाराज हो गये, पर जैत्रसिंह ने उनकी नाराजी की जरा भी परवाह न की। तब वे लोग, जैत्रसिंह के छोटे भाई को भड़काने लगें।

उन्होंने उससे कहा-‘‘राजा बनने के योग्य तो आप ही हैं। यदि आप राजा बनने की इच्छा रखते हों तो हम लोग आपकी सहायता करने को तैयार हैं।’’ जैत्रसिह का भाई उनकी बातों में आ गया। तब सब लोगों की सलाह से, आराद नामक एक क्षत्रिय को जैत्रसिंह की हत्या करने का काम सौंपा गया।

जैत्रसिंह को भी यह हाल मालूम हो गया। पर वह न तो डरा ही और न उसने अपनी रक्षा का ही कुछ प्रबन्ध किया। एक दिन जैत्रसिंह ने देखा कि एक आदमी नंगी तलबार लिए महल में आ रहा है, उसे देखते ही जैत्रसिंह सावधान हो गया।

हत्यारे ने झपट कर राजा पर बार किया। पर इसी समय राजा के उसी मित्र तथा दूसरे मित्रों ने बिजली के समान लपक कर हत्यारे को पकड़ लिया। राजा साफ बच गया।

जैत्रसिंह ने हत्यारे से पूछा-‘‘आराद, मैंने तुम्हारा क्या नुकसान किया है? तुम मुझे क्यों मारना चाहते हो?’’

आराद ने जबाब दिया-‘‘आप बुरे लोगों से प्रेम करते हैं। आप से मेरी ही नहीं, राज्य भर की हँसी हो रही है।’’

जैत्रसिंह समझ गया कि हत्यारा अज्ञानी है। इस पर तो दया करती चाहिए। तब जैत्रसिंह ने सब लोगों से कहा कि आप लोग इसे छोड़कर बाहर चले जाइए। उन लोगों ने वैसा ही किया। तब जैत्रसिंद ने आराद से कहा-‘‘आराद, तुम मेरे भाई हो। हम तुम एक ही हैं। तुम्हारे अपराध पर मुझे कुछ रंज नहीं। बोलो क्या चाहते हो?’’

यह सुनकर आराद रोने लगा और राजा के पैरों पर गिर कर बोला-‘‘महाराज ! मैं पापी हूँ। मेरा अपराध क्षमा, कीजिए।’’

जैत्रसिंह ने उसे उठाकर गले से लगा लिया।

यदि जैत्रसिंह ने आराद पर-नाराजी और घृणा की होती तो वह अपनी करनी पर इस प्रकार दुखी न होता। उलटा वह हमेशा के लिए राजा का शत्रु बन बैठता। घृणा का व्यवहार ही बुरा होता है, उससे कब कौन सुखी हुआ? उसी दिन जैत्रसिह ने राज्य छोड़कर बुद्धदेव की शरण ले ली।

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