ऋषि उद्दालक आरुणी और पुत्र श्वेतकेतु पौराणिक कथा ! Mythology of Uddalaka Aruni and Svetaketu ! Pauranik Katha

Mythology of Uddalaka Aruni and Svetaketu ! Pauranik Katha

पौराणिक कथा “ऋषि उद्दालक आरुणी और पुत्र श्वेतकेतु पौराणिक कथा ! Mythology of Uddalaka Aruni and Svetaketu ! Pauranik Katha – जिसे लिखा हैं ‘डा0 वसन्त यामदग्नि’ ने।  पौराणिक कथा / पौराणिक कहानियां। आइये जानते हैं –

ऋषि उद्दालक आरुणी और पुत्र श्वेतकेतु पौराणिक कथा ! Mythology of Uddalaka Aruni and Svetaketu ! Pauranik Katha

बात बहुत पुरानी है । एक ऋषि थे उद्दालक आरुणी। इनका एक पुत्र था। इसका नाम था श्वेतकेतु। बचपन से ही श्वेतकेतु खेल-कूद में मस्त रहता। पढ़ना-लिखना उसे अच्छा न लगता। उसके इस स्वभाव को देख ऋषि सदा चिंतित रहते। धीरे-धीरे श्वेतकेतु की आयु बढ़ने लगी, परन्तु खेल-कूद से उसका मन न भरा।

एक दिन ऋषि आरुणी ने पुत्र को समझाने की बात सोची, पर वे कोई उपदेश भी उस पर थोपना न चाहते थे। अन्त में उन्होंने फैसला किया कि बालक के मन में पढ़ने-लिखने की रुचि पैदा की जाए। जिससे एक दिन वह स्वयं ही पढ़ने-लिखने लगेगा। यह सोच कर श्वेतकेतु की संगत बदलने का प्रयास किया गया। उसके साथी पढ़ते-लिखते थे। वेदों का पाठ करते थे और समय पर खेलते-कूदते भी थे। इनके साथ रहकर श्वेतकेतु भी अब कभी-कभी श्लोकों को गुनगुनाने लगा था। कभी उनके अर्थों को जानने का प्रयास भी करने लगा था। किसी विषय पर साथियों में बहस छिड़ जाती तो उसमें हिस्सा भी लेता – पर अधिकतर मात खा बैठता। झल्ला कर एक दिन वह संकल्प कर बैठा – ‘‘मैं पढूंगा, वेदपाठी बनूंगा और ज्ञानचर्चा में अपने साथियों में सबसे आगे रहूंगा – सबसे सम्मान पाऊंगा।’’

उसकी यह लालसा धीरे-धीरे बढ़ने लगी। एक दिन पढ़ाने के लिए पिता के सामनें प्रार्थना की। ऋषि आरुणी तो पहले ही ऐसा चाहते थे। उन्होंने श्वेतकेतु को तुरन्त एक ऋषि के आश्रम में भेज दिया। मन में वे बड़े प्रसन्न थे, क्योंकि अब उनका पुत्र वेदों का ज्ञाता बन सकेगा।

ऋषिकुल में श्वेतकेतु की पढ़ाई आरम्भ हुई। स्पर्धा के कारण श्वेतकेतु भी मन लगा कर पढ़ने लगा। इस प्रकार बारह वर्ष बीत गए। श्वतकेतु ज्ञान-विज्ञान में निपुण हो गया। चारों वेदों का वह अच्छा पण्डित बन गया। एक दिन मन ही मन वह सोचने लगा, मैं वेद-शास्त्रों का ज्ञाता बन चुका हूं। गुरुजी भी मेरे ज्ञान की बड़ाई करते हैं। सभी सहपाठी मेरा लोहा मानते हैं, तब क्यो न अब मैं सबको शास्त्रार्थ के लिए ललकार दूं। सबको हरा कर महापण्डित बनूंगा।

इन विचारों में वह खोया ही था कि उसे बचपन की एक घटना याद आ गईं। उस दित एक साधारण-सी चर्चा में उसे अपने साथियों से मात खानी पड़ी थी। कितनी कड़वाहट थी उस स्मृति में। उसने निश्चय किया कि अब वह उन सब को ज्ञान-चर्चा में छटी का दूध याद करा देगा। सबका सम्मान पाएगा।

इस प्रकार ज्ञान के साथ श्वेतकेतु को घमण्ड ने भी आ दबोचा। गुरु आश्रम छोड़ने के लिए वह तैयार हो गया। अचानक एक दिन वह अपने घर भी आ पहुंचा। अपने ज्ञान के गरू में वह साधारण व्यवहार भी भूल बैठा। ऋषि आरुणी ने उसके आचरण को देखा तो वे तुरन्त समझ गए कि श्वेतकेतु की शिक्षा अभी अधूरी ही है। कारण, विद्या तो विनयी बनाती है। श्वेतकेतु तो प्रणाम करना भी भूल गया। वे बहुत क्षुब्ध हुए, परन्तु थे शांत- बिलकूल शान्त।

Uddalaka Aruni and Svetaketu ! Pauranik Katha

न माथे पर कोई चिंता, न वाणी में कोई आक्रोश । सहजभाव से वे उससे पूछने लगे – ‘‘हे श्वेतकेतो! तू बारह वर्ष बाद विद्या पढ़कर घर लौटा है। सब कुछ तूने जाना है। वेद और उपनियद तुझे याद हैं। परन्तु क्या तू मुझे एक प्रश्न का उत्तर दे सकता है ?’’

जैसे ही पिता आरुणि ने प्रश्न किया, श्वेतकेतु का अभिमान आसमान को छूने लगा। मन ही मन वह सोचने लगा – मेरे ज्ञान के आगे पिताजी का छोटा-सा प्रश्न भला कहां ठहरेगा ?’

वह तपाक से बोला – ‘‘पिताजी ! क्या मेरे ज्ञान में अब भी आपको सन्देह है? मैंने बारह वर्ष लगातार शास्त्र पढ़े हैं। अब शास्त्रार्थ में भी मुझे कोई हरा न सकेगा। आप जो पूछना चाहें, पूछ लें। मैं सब कुछ जानता हूं।’’

श्वेतकेत के स्वर में दर्प था। उसकी बुद्धि अभिमान में चूर थी। शायद इसीलिए वह ऋषि आरुणि की गरिमा को भी न समझ सका। आरुणि भली प्रकार जान गए थे कि श्वेतकेतु ने जो कुछ पाया है, उसके पीछे घमण्ड होने के कारण – अधूरा ज्ञान है। यह अभिमान जब नष्ट होगा, तभी इसके हृदय में ज्ञान का प्रकाश होगा। ऐसा वे सोच ही रहे थे कि श्वेतकेतु फिर बोला – ‘‘पिताजी पूछिए न? क्या पूछ रहे थे?’’

ऋषि आरुणि पहले तो श्वेतकेतु की ओर देखते रहे, फिर कुछ धीमे-से स्वर में बोले – ‘‘कुछ नहीं बेटा – बस, मैं तो यही जानना चाहता था कि संसार में वह एक वस्तु क्या है, जिसके जानने से सबका ज्ञान हो जाता है ।’’

श्वेतकेतु ने पिता का प्रश्न सुना और सोच में पड़ गया। वह एक वस्तु क्या हो सकती है – उसकी बुद्धि ने बार-बार जोर लगाया परन्तु उसकी समझ में कुछ न आया। धीरे-धीरे बहुत कुछ जानने का उसका अभिमान भी काफूर होने लगा। अन्त में जब उसे पिता के प्रश्न का कोई उत्तर न सूझा तब वह विनत हुआ। ऋषि आरुणि से ही उसका उत्तर जानने की प्रार्थना करने लगा।

गिड़गिड़ाता अपने पिता के चरणों में पड़ गया। हाथ जोड़ कर वह उनसे कहने लगा – ‘‘भगवन्! जिस एक वस्तु को जानने से सब ज्ञानी हो सकते हैं, उसे मैं नहीं जानता। मेरा ज्ञान, लगता है, अभी अधूरा ही है। कृपा करके अब उसे आप ही मुझे बताइए?’’

ऋषि आरुणि ने श्वेतकेतु को दुलारते हुए कहा – ‘‘वत्स! यह वस्तु ही सत्य है। एक बार सत्य के स्वरूप को पहचान लेने से शेष जानने को संसार में कुछ भी नहीं रहता।’’

श्वेतकेतु के लिये बात कुछ कठिन थी। वह फिर बोला – ‘‘पिताजी संसार तो रंग-बिरंगा हैं। यहां तरह-तरह की वस्तुएं हैं, तरह-तरह के जीवन हैं। सबका परिचय भी अलग-अलग है। परन्तु आप कहते हैं कि इन सब का परिचय केवल सत्य को जानने मात्र से सम्भव है। मेरी समझ में बिलकुल नहीं आया, प्रभो।’’

‘‘हां वत्स। मैं फिर भी यही कहता हूं’’ – ऋषि बोले, ‘‘सत्य एक है। उसके रंग अनेक हैं। एक बार यह बात समझने से सब बात साफ हो जाती है, प्रियदर्शन।’’

श्वेतकेतु के लिए वात वहीं की वहीं थी । चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कब फिर बोला- ‘‘पूज्यवर! क्षमा करें। आपके हाथ की अंगूठी और इस कन्या के गले का हार दोनों अलग-अलग नहीं हैं क्या ?

‘‘पुत्र, यही तो मैं तुम्हें बताना चाहता था। तुमने जिसे दो कहा वह एक ही स्वर्ण के दो रूप हैं। वस्तु एक है – स्वर्ण और उसके कार्य दो हैं, हार और अंगूठी। कारण जब सामने है तो। कार्य भी सामने ही हैं।’’

इस बार श्वेतकेतु की विचार-मुद्रा गम्भीर हुई। उसे समझाते हुए उद्दालक आरुणि फिर। बोलें, ‘‘हे बालक ! यह नाम, रूप और क्रिया स्वरूप जगत में दिखाई देने वाला अलग-अलग रूप एक ही सत्य का भिन-भिन्न आभास है। सत्य तो एक ही था, एक ही है और एक ही रहेगा। सत्य रूप ब्रह्म के संकल्प से तेज उत्पन्न हुआ, फिर जल उत्पन्न हुआ और उसके बाद अन्न उत्पन्न हुआ। जगत की सभी वस्तुएं तेज, जल और अन्नमय हैं। जहां प्रकाश है, वहां तेज तत्व है, जहां द्रव है, वहां जल तत्व है और जहां कठोरता है वहां अन्न अथवा पृथ्वी तत्व है।’’

‘‘परन्तु पिताजी ! प्रकाश रूप अग्नि में भी तो अनेक रंग हैं ?’’ श्वेतकेतु ने प्रश्न किया। हा वर्त्स। अग्नि में लोलिमा तेज की है। सफेदी जल की है और श्यामता पृथ्वी की है। इसी प्रकार अन्न की तीन त्रियाएं हैं – विष्टा, मांस और मन। इसी प्रकार जल के स्थूल भाग से मूत्र, मध्यम भाग से रक्त और सूक्ष्म भाग से प्राण बनता है’’ – ऋषि आरुणि ने उसे समझाते हुए बताया।

Uddalaka Aruni and Svetaketu ! Pauranik Katha

‘‘तब तो श्रध्ये मन अन्न से बनता है, प्राण जल से और वाणी तेज से’’ – श्वेतकेतु ने ऋषि से फिर पूछा।

“हां श्वेतकेतु। तुमने ठीक ही समझा है। सब का मूल सत ही है।’’

ऋषि के बताने पर श्वेतकेतु और भी गम्भीर हो गया। वह फिर बोला – ‘‘तब तो देव प्राणी-प्राणी एक ही सत्य का स्वरूप हैं ।’’

आरुणि बोले – ‘‘यही तो सत्य है और यह सत्य अणु की भांति सूक्ष्म है। जगत में आत्म- रूप है। बाहरी भेद केवल दिखावटी है, मिथ्या है।’’

श्वेतकेतु की बुद्धि दर्पण की तरह निर्मल होती जा रही थी। धीरे धीरे विषय की गम्भीरता उसकी समझ में आती जा रही थी। अपनी बात को साफ करते हुए वह फिर बोला – ‘‘देश, काल और धर्म सम्प्रदाय के नाम पर संसार में जो भेद किया जाता है, वह भी असत्य ही है न पिताजी ?’’

‘‘हां तुम ठीक कहते का श्वेतकेतु! शहद में अनेक वृक्षों का रस होता है परन्तु वह रस अलग-अलग होकर यह नहीं जानता कि मैं किस वृक्ष का रस हूं। इसी प्रकार जीव की दशा है। वह संत का ही रूप है, संत के एक भाव प्राप्त करता हुआ भी अज्ञान की स्थिति में संत को नहीं जानता इसीलिए आपस में भेद मानता है। अन्यथा जो सूक्ष्म है, वही आत्मा है और जो आत्मा है, वही परमात्मा है – यानी संत है। यही संत सम्पूर्ण सृष्टि का ज्ञान है।’’

पिता के उत्तर को सुनकर श्वेतकेतु अनायास ही कह उठा – ‘‘तब तो हम सब एक हैं।’’ इस पर ऋषि आरुणि का समर्थन था – ‘‘हां हम सब एक हैं।’’

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