पौराणिक कथा “सिर का दान Hindi Pauranik Katha / Kahani ~ Sir Ka Daan – जिसे लिखा हैं ‘रामभज मदान रिक्त’ ने पौराणिक कथा / पौराणिक कहानियां। आइये जानते हैं –
सिर का दान
Hindi Pauranik Katha / Kahani ~ Sir Ka Daan
एक ऋषि थे। बड़े तपस्वी। दिन-रात तप में लीन रहते। कठिन से कठिन साधना करते। दूसरों की भलाई के काम और प्राणीमात्र की सेवा उनकी आदत बन चुकी थी। यहां तक कि पशु-पक्षी की भी वह बहुत सेवा करते। उन्हें खिलाते-पिलाते और दुलारते। दूसरों को मार कर खा जाने वाले हिसक पशु भी उनके आश्रम के चारों ओर प्रेम और प्रीति से विचरतें थे। सभी पशु-पक्षी उनके वात्सल्यमय प्रेम से इस तरह प्रभावित थे कि वे अपने स्वाभाविक वैर-भाव छोड़ कर परस्पर मिल-जुल कर रहते थे।
हुआ यह कि वृत्रासुर नाम का एक राक्षस देवताओं को बहुत दुःख दे रहा था। उसने तो तमाम संसार को तरह-तरह की तकलीफें दी थीं। ऐसे असुर से सबकी रक्षा करने के लिए देवताओं ने वृत्रासुर से लड़ाई ठान ली। किन्तु वह असुर आसानी से मारा जाने वाला नहीं था। इसके लिए किसी तपस्वी ऋषि की पावन अस्थियों से एक वज्र अर्थात अस्त निर्मित करना आवश्यक था। इसके लिए सभी देवता मिलकर के इस ऋषि के पास आए।
ऋषि त्यागी तो थे ही, उन्होंने कहा, ‘‘जनता की रक्षा के लिए एवं आप सब देवताओं के जीवन की रक्षा के लिए मैं अपने प्राणों का कोई मोह नहीं करता।’’ देवताओं ने ‘धन्य हो-धन्य हो’ कहकर उनका अभिवादन किया और उस तपस्वी ऋषि ने अपने शरीर की समस्त हड्डियों का सहर्ष दान कर दिया।
किन्तु यह तो बहुत बाद की बात है।
महर्षि दधीचि अपने आश्रम में विराजमान हैं। चारों ओर मंत्रोच्चार और वेद-पाठ हो रहे हैं। हवन कुण्डों से, स्वाहा-स्वाहा, की ध्वनि मुखरित हो रही है। दोनों मर मन को शान्ति प्रदान करने वाली सुगंध-सौरभ वायुमण्डल पर तैर रही है। आश्रम के चारों ओर घने वृक्ष और लताएं मंद हवा में डोल रहे हैं। चारों ओर मन-भावने रंग-बिरंगे फूल खिले हैं। शान्ति और सुरभिमय वातावरण जीवन में आनन्द घोल रहा है।
अचानक अश्विनी कुमारों का आगमन हुआ। उन्होंने आतें ही महर्षि दधीचि के चरणों में प्रणाम निवेदन किया। महर्षि बोले, ‘‘पधारिए अश्विनी कुमारो, आज मेरे आश्रम के अहोभाग्य हैं कि आप जैसी दिव्य विभूतियों के यहां चरण पड़े।’’
अश्विनी कुमार बारी-बारी से आसन ग्रहण करने लगे। महर्षि ने फिर कहा, ‘‘कहो, आपका आने का उद्देश्य क्या है? वह हमें निःसंकोच कह सुनाइए।’’
अश्विनी कूमारों ने अपने आने का उद्देश्य स्पष्ट किया, ‘‘महाराज, आप समस्त विद्याओं के ज्ञाता हैं। आपकी कीति अथवा यश चारों भुवनों में छाया हुआ है। हम आप के श्रीमुख से मधु विद्या के गूढ़ रहस्यों को जानना चाहते हैं। महाराज, जिस प्रकार घोर अंधकार में विद्युत के कड़कने के बाद मूसलाधार वर्षा होती है, उसी प्रकार अविद्या के अंधकार में मधु विद्या के उपदेश के बाद मानव जाति के अन्तरात्मा में शान्ति की वर्षा होगी। हमारा तो कल्याण होगा ही, जग का भी कल्याण होगा। दधीचि ने उन अश्विनी कुमारों को सम्बोधन करते हुए कहा, ‘‘इन्द्र ने इस विद्या के रहस्य को किसी को बताने से इंकार किया हुआ है। किन्तु आपके मन में इनके रहस्यों को जानने की जिज्ञासा है तो कोई न कोई उपाय तो किया ही जाना चाहिए। ‘‘उन्होंने कहा,‘‘हम आपका सिर इस प्रकार का बना देंगे कि इन्द्र आपको बिलकुल पहचान नहीं पाएगा।’’
अश्विनी कमारों ने दधीचि का सिर काट कर अलग रख दिया तथा एक अश्व का सिर ‘‘घोड़े का सिर उसके स्थान पर लगा दिया। दधीचि ने अश्व के सिर से ही जिज्ञासु शिष्यों को मधु विद्या के रहस्यों का उपदेश देना प्रारंभ किया। जब वे उपदेश दे चुके तो इन्द्र ने आकर बिना देखे भाले उनका सिर काट दिया। तुरन्त ही अश्वनी ने दधीचि के अपने सिर को, जिसे उन्होंने संभाल कर रखा हुआ था, धड़ के साथ पुनः जोड़ दिया। शिष्य ज्ञानार्जन कर अपनी राह चलते बने।
इस प्रकार उस तपस्वी महात्मा ने जन-कल्याण के लिए अपना सिर तक कटवा देने का उदाहरण प्रस्तुत किया। निःसंदेह इस प्रकार का त्याग ही मानव-समाज का कल्याण कर सकता है।
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