सत्यकाम जाबाल की पौराणिक कथा ! Mythology of Satyakam Jabal ! Pauranik Katha

Satyakam Jabal Pauranik Katha

पौराणिक कथा “सत्यकाम जाबाल की पौराणिक कथा ! Mythology of Satyakam Jabal ! Pauranik Katha – जिसे लिखा हैं ‘अशोक कौशिक’ ने। Satyakam Jabal Pauranik Katha” पौराणिक कथा / पौराणिक कहानियां। आइये जानते हैं –

बहुत पुराने समय की बात है। उन दिनों महर्षि गौतम के आश्रम का गुरुकुल पढ़ने-पढ़ाने के लिए बहुत प्रसिद्ध था। दूर-दूर के देशों से बालक उनके आश्रम में विद्याध्ययन के लिए आया करते थे। उन्हीं के एक बहुत प्रसिद्ध शिष्य हुए ‘सत्यकाम जाबाल’ आज की पौराणिक कथा उन्हीं पर आधारित है।

सत्यकाम जाबाल की पौराणिक कथा !
Mythology of Satyakam Jabal ! Pauranik Katha

उपनिषद की एक कथा है जिसमें सत्यकाम जाबाल ऋषि के बाल्यावस्था की एक घटना का उल्लेख है। इन्हें जाबाला और जाबालि कहकर भी सम्बोधित किया जाता है। रामायण में इनका प्रसंग आया है।

महर्षि गौतम के आश्रम से कुछ दूर एक गांव में एक सदाचारिणी ब्राह्मणी रहती थी । उसका नाम था जबाला। उस मार्ग से गुजरने वाले यात्रियों की सेवा कर उनसे प्राप्त होने वाले धन से वह अपना जीवन निर्वाह करती थी।

उसका पुत्र बड़ा योग्य था। वह जब कुछ बड़ा हुआ तो उसकी माता को उसकी पढ़ाई की चिन्ता हुईं। उन दिनों गुरुकुल ही पढ़ाई के केन्द्र होते थे। ब्राह्मणी जवाला जिस ग्राम में रहती थी उसके निकट महर्षि गौतम का आश्रम था। माता ने बालक को महर्षि के आश्रम का पता बताया और अकेले ही वहां प्रवेश लेने के लिए भेज दिया।

माता के बताए अनुसार वह निर्भीक बालक महर्षि गौतम के आश्रम में जा पहुंचा। महर्षि के पास पहुंच उसने उनको प्रणाम किया और हाथ जोड़ के सामने खड़ा हो गया।

महर्षि गौतम समझते थे कि बालक आया है तो पढ़ने के लिए ही आया होगा। फिर भी उन्होंने उसे अकेले ही आया देख कर पूछ लिया, ‘‘बालक, किस कार्य से आए हो?’’

‘‘आपके चरणों में बैठ कर विद्याध्ययन करने की जिज्ञासा से उपस्थित हुआ हूं, महाराज।’’ उसने विनम्र वाणी में उत्तर दिया।

बालक का उत्तर सुन कर महर्षि प्रसन्न हुए उन्होंने पूछा, ‘‘क्या नाम है तुम्हारा?’’

Mythology of Satyakam Jabal ! Pauranik Katha

‘सत्यकाम।’’ बालक ने उसी विनम्रता से उत्तर दिया।

‘‘पिता का नाम क्या है?’’ महर्षि ने दूसरा प्रश्न किया।

सत्यकाम के सम्मुख आज तक कभी पिता आए ही नहीं थे और न उसने कभी उनका नाम ही सुना था। उसने कभी अपने पिता के विषय मेें कुछ जाना ही नहीं था। सहसा महर्षि के मुख से पिता का नाम सुन कर वह विस्मित हुआ। किन्तु तुरन्त ही स्थित हो कर उसने उत्तर दिया, ‘‘ पिता का नाम तो मुझे ज्ञात नहीं है महाराज। मैने कभी उनको देखा नहीं। मैं तो केवल अपनी मां को ही जानता हूं। उनका नाम जबाला है।’’

महर्षि ने उसको समझातेे हुए कहा, ‘‘पुत्र, यद्यपि तुम्हारे उत्तर से मैं सन्तुष्ट हूं फिर भी तुम अपनी माता के पास जाकर अपने पिता का नाम और कुल-गोत्र आदि पूछ कर आओ।’’

बालक सत्यकाम इससे न तो निराश हुआ और न उसका उत्साह ही कम हुआ। वह अपनी माता के पास गया और उसने महर्षि के साथ हुए वार्तालाप का विवरण सुना कर पूछा,‘‘ माता जी, क्या नाम है मेरे पिता का ? आपने उनके विषय में तो मुझे कुछ बताय ही नहीं?’’

सत्यकाम की माता ने उसे समझाते हूए कहा, ‘‘बेटा, मैं तुम्हें तुम्हारे पिता के विषय में बताती भी तो क्या बताती, जबकि स्वयं मुझे ही मालूम नहीं है कि तुम्हारे पिता कौन हैं? मैंने तो आज तक यात्रियों की सेवा में ही अपना जीवन बिताया है। नित्य प्रति यात्री आते ही रहते हैं।’’

अपनी माता के मुख से अपने पिता के विषय में अटपटा-सा उत्तर सुन कर सत्यकाम बोला, माँ, किन्तु पिता का नाम जाने बिना तो कदाचित गुरुकुल में प्रवेश मिलना कठिन है ?’’ बालक को आशंका होने लगी थी।

उस की माता बड़ी ही सत्य बोलने वाली थी। उसको अपनी सत्यता पर बड़ा भरोसा भी था। अतः उसने बालक को समझाते हुए कहा, ‘‘बेटा, तुम महर्षि के पास एक बार फिर जाओ और उन्हें ठीक उसी प्रकार बता देना जिस प्रकार मैंने तुम्हें बताया है। उनसे कहना कि मेरी माता स्वयं मेरे पिता के विषय में नहीं जानती। इसलिए न तो मुझे अपने पिता का नाम मालूम है और न अपना कूुल-गोत्र ही। प्रयत्न करके देख लो। कदाचित महर्षि इस बात को समझ कर तुम्हें अपने गुरुकुल में प्रवेश दे दें ।’’

सत्यकाम भी शीघ्र ही पराजय स्वीकार करने वाला बालक नहीं था। माता के समझाने पर वह फिर महर्षि के चरणों में उपस्थित हुआ। महर्षि ने उसे आया देख पूछा, ‘‘पूछ आए अपने पिता का नाम?’’

सत्यकाम बोला, ‘‘गुरुदेव। मेरी माता कहती हैं कि उनको भी मेरे पिता का नाम मालूम नहीं है। उनका जीवन तो यात्रियों की सेवा में ही बीतता रहा है। इसलिए वे मेरे पिता का नाम तथा कुल, गोत्र बताने में असर्म्थ हैं।’’

पुत्र और माता की इस प्रकार की सत्य के प्रति निष्ठा से महर्षि गौतम बहुत प्रभावित हुए। महर्षि ने सत्यकाम को शावासी देते हुए कहा, ‘‘बेटा, जो इस प्रकार निर्भय होकर अपनी बात सच-सच बता देता है वह निश्चित ही उच्च कुल की सन्तान हो सकता है। तुम्हारी माता का नाम जबाला है न आज से तुम्हारा नाम हुआ ‘‘सत्यकाम जाबाल’’। यह जवाला ही अब तुम्हारा गोत्र हुआ। तुम्हारी वंश परम्परा अब जबाला नाम से जानी जाएगी। निस्संकोच मन से अब तुम इस आश्रम में अपनी पढ़ाई आरम्भ करो।’’

इस प्रकार महर्षि गौतम ने सत्यकाम को अपने गुरुकुल में प्रवेश दिया और उसका उपनयन संस्कार आदि कर उसको चार सौ गायों के पालन-पोषण का भार सौंप दिया। महषि ने कहा,‘‘ जब तक इन चार सौ गायों की वंश बढ़ कर एक हजार हो तब तक तुम्हारी शिक्षा भी पूर्ण हो जानी चाहिए।’’ इसका अभिप्राय यही था कि सत्यकाम को पढ़ाई में कड़ी मेहनत करनी होगी और साथ ही गायों की देखरेख भी करनी होगी।

सत्यकाम लगन का पक्का था। उसने महर्षि के चरणों में प्रणाम करते हुए कहा, ‘‘महाराज आपकी कृपा और आशीवाद से में अपने कार्य को ठीक समय पर सम्पन्न कर लूंगा, ऐसा मेरा विश्वास है।

शिष्य में विश्वास की भावना पर गुरु को बहुत प्रसन्ता हुई।

Mythology of Satyakam Jabal ! Pauranik Katha

गुरुकूल के पूर्व की ओर जो वन था वह सत्यकाम को दे दिया गया। उसको शिक्षा देने के लिए विभिन्न विषयों के चार विद्वानों की नियुक्ति भी कर दी गई। बल्कि सत्यकाम ने स्वयं अपने लिए वहां कुटिया बनाई और फिर गौयों के पालन-पोषण के साथ-साथ अपनी पढ़ाई में भी जुट गया। जिस लगन से वह अपना अध्ययन करता था उसी लगन से वह गायों की सेवा भी करता।

गुरुकुल वासियों ने अनुभव किया कि ज्यों-ज्यों सत्यकाम का ज्ञान बढ़ता जा रहा है त्यों-त्यों गौओं की वंशवेलि बढ़ने के साथ साथ वे हृष्ट-पुष्ट भी होती जा रही हैं। महर्षि गौतम यह सब देख कर प्रसन्न होते थे। सत्यकाम जैसे बालक को शिष्य के रूप में पाकर उन्होंने अपने गुरुकुल को भी धन्य समझा ।

जब तक गौओं की संख्या चार सौ से एक हजार तक पहुंची, सत्यकाम ने अपने चार विषयों की शिक्षा पूर्ण कर ली।

यथा अवसर सत्यकाम महर्षि के सम्मुख उपस्थित हुआ। उसने उनको प्रणाम कर कहा, ‘‘महाराज आपके द्वारा नियुक्त चारों विद्वान महापुरुषों का आशीर्वाद मुझे प्राप्त हो गया है तथा मुझे सौंपी गई गौओं की संख्या भी आपके कृपा-प्रसाद से एक सहस्त्र से अधिक हो गई हैं। वे सभी स्वस्थ और हृष्ट-पुष्ट हैं। दूध देने वाली गऊ यथानुकूल दूध भी देती हैं। इस पर भी यदि मेरे कार्ये में किसी प्रकार की कोई त्रुटि रह गई हो तो कृपया आदेश कीजिए।’’

सत्यकाम की विनम्रता, कार्यकुशलता, सत्य के प्रति निष्ठा और विद्या के प्रति अनुराग देख कर महर्षि गौतम बहुत ही प्रसन्न हुए। महर्षि ने उसे आशीर्वाद दिया और फिर उसे कुछ दिन अपने पास रख कर अपनी देख-रेख में विद्याओं में पारंगत कर दिया।

समय बीतने पर सत्यकाम ने अपनी विद्वता से सारे संसार में अपनी तथा अपने गुरु महषि गौतम की ख्याति फैला दी।

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