चाक्रायण का धर्मसंकट | Ved Upnishad Gyan ! Poranik Katha / Kahaniya

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पौराणिक कथा चाक्रायण का धर्मसंकट | Ved Upnishad Gyan – Hindi Poranik Katha / Kahaniya : पौराणिक कथा / पौराणिक कहानियां – क्षितीश- वेदालंकार

चाक्रायण का धर्मसंकट
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एक बार टिड्डी दल के प्रकोप से सारी फसल मारी गई और देश में दूर-दूर तक दुर्भिक्ष फैल गया । लोग घर-वार छोड़ कर भोजन की तलाश में भटकने लगे । महर्षि उषस्ति चाक्रायण भी अपना घर-बार छोड़कर अपनी पत्नी के साथ भिक्षा मांगने निकल पड़े ।

एक दिन भिक्षा के लिए भटकते-भटकते वे महावतों के किसी गांव में पहुंचे । वहां एक महावत बैठा हुआ उड़द की दाल की खिचड़ी खा रहा था । उपस्थित चाक्रायण ने उसके पास जाकर कहा – ‘‘भूखा हूं, भिक्षा दो ।’’

महावत बोला – ‘‘भगवन् ! यह जो खिचड़ी में खा रहा हूं, मेरे पास देने के लिए इसके सिवाय और कुछ नहीं है’’ .

महर्षि उषस्ति बोले – ‘‘तो इस खिचड़ी में से ही थोड़ी भिक्षा मुझे दे दो । ’’ तब महावत ने अपनी जूठी खिचड़ी में से ही भिक्षा के रूप में थोड़ी-सी खिचड़ी उषस्ति को दे दी।

फिर महावत बोला – ‘‘लो, यह पानी भी लेलो।’’

उत्तर में उषस्ति ने कहा – ‘‘यह मैं नहीं लूंगा, क्योंकि यह तुम्हारा जूठा है। ’’

यह सुनकर महावत को बड़ी हैरानी हुई । उसने ताना देते हुए कहा- ‘‘क्या यह खिचड़ी मेरी जूठी नहीं है ?’’

उषस्ति ने उत्तर दिया, ‘‘बेशक यह खिचड़ी तुम्हारी जूठी है। परन्तु भोजन के लिए कोई दूसरा यथार्थ इस समय सुलभ नहीं है । इधर भूख के कारण मेरे प्राणों पर आ बनी थी । अतः जीवन रक्षा के लिए मैने यह जूठी खिचड़ी ग्रहण कर ली है। परन्तु पीने के लिएशुद्ध जल का अभी कोई संकट नहीं है । इसलिए जूठा पानी लेने की मुझे कोई विवशता नहीं है । ’’

उषस्ति ने कुछ खिचड़ी स्वयं खा ली और बाकी ले जाकर पत्नी को दे दी। उधर पत्नी को भी किसी ने थोड़ा-सा अन्न दे दिया था जिसे खाकर उसने अपनी भूख बुझा ली थी। अतः वह खिचड़ी उसने संभाल कर रख छोड़ी।

दूसरे दिन महर्षि उषस्ति को समाचार मिला कि एक निकटवर्ती राजा ने एक विशाल यज्ञ का अनुष्ठान रचा है । उषस्ति ने अपनी पत्नी को भी यह समाचार सुनाया और उससे कहा कि यदि में किसी तरह ठीक समय पर वहां पहुंच जाऊं तो मुझे विश्वास है कि राजा मुझे भी यज्ञ-कार्य में शामिल कर लेगा और मुझे अच्छी दक्षिणा भी मिल जाएगी । परन्तु रास्ते में खाने के लिए कुछ मिले, तभी मैं वहां तक पहुंच सकता हूं, भूखे तो मुझ से सफर भी नहीं होगा।

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पत्नी बोली – ‘‘भगवन् ! कल की आपकी लाई हुई खिचड़ी सुरक्षित रखी है । उससे आप अपनी भूख शान्त कर सकते हैं ।’’ उषस्ति ने वह खिचड़ी ली और राजा के यज्ञ में शामिल होने के लिए चल पड़ा ।

वहां जाकर उसने देखा कि यज्ञ-मंडप बन चुका है। यजमान और पुरोहित तथा अन्य कार्यकर्ता पहुंच चुके हैं और यज्ञ की सारी तैयारी पूरी हो चुकी है

उषस्ति ने यज्ञ के ब्रह्मा, होता, अध्वर्यू और उद्गाता सबको बारी-बारी से बी लक्ष्य करके कहा कि यदि तुम लोगों ने यज्ञ के विधि-विधान में कहीं कोई त्रुटि कर दी, तो कहीं भी मुंह दिखाने के लायक नहीं रहोगे ।

उषस्ति की बातों को सुनकर वे सव डर गए और एक तरफ चुप होकर बैठ गए तब राजा ने उषस्ति से कहा – ‘‘श्रीमान ! मैं आपका परिचय प्राप्त करना चाहता हूं । ’’

उषस्ति ने उत्तर दिया – ‘‘राजन्! मैं उषस्ति चाक्रायण हूं । ’’

यह सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और बोला – ‘‘भगवन् ! इस यज्ञ के लिए मैंने आपकी बहुत खोज कराई थी, पर आपका- कहीं कुछ पता नहीं लगा। जब आप नहीं मिले, तभी अन्य पंडितों को यज्ञ के लिये आमंत्रित किया। यह मेरा सौभाग्य है कि आप ठीक समय पर पधार गए । आपसे मेरी प्रार्थना है कि अब आप ही इस यज्ञ के समस्त कार्य-कलाप का संचालन कीजिए।

उषस्ति ने कहा- ‘‘राजन ! यदि आपकी ऐसी ही इच्छा है, तो मैं भी इसके लिए तैयार हूं। पर मेरी एक शर्ते है। वह शर्त यह है कि कुल जितनी दक्षिणा आप इन सब पंडितों को देंगे, उतनी ही दक्षिणा मुझे अकेले को देनी होगी। ये सब पंडित मेरे सहायक के रूप में कार्य करेंगे। “राजा ने यह शर्ते स्वीकार कर ली ।

उपषस्ति चाक्रायण ने यज्ञ के समस्त कार्य-कलाप का संचालन किया और निश्चित समय पर यज्ञ विधि-विधान सहित पूरा हो गया। अन्त में महर्षि उषस्ति चाक्रायण ने राजा को आशीर्वाद दिया और अन्य पंडितों को भी स्नेहपूवेंक उनकी भूलों से अवगत कराया।

छान्दोग्य उपनिषद् की इस कथा में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि संकट की घड़ी में मनुष्य को क्या करना चाहिए।

दुभिक्ष के कारण उषस्ति को अपना घर-बार छोड़ना पड़ा, भिक्षा मांग कर गुजारा करना पड़ा, द्वार-द्वार भटकना पड़ा और विवश होकर अन्त में एक दिन जूठी खिचड़ी के लिए भी हाथ फैलाना पड़ा । परन्तु उसने जूठा पानी लेने से इन्कार कर दिया अर्थात जीवन-रक्षा के लिए आप द्धर्म के रूप में उसने जूठी खिचड़ी तो खाली, पर इतना विवेक उसमें अवश्य रहा कि अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए उसने जूठा पानी स्वीकार नहीं किया क्योंकि पानी का अकाल नहीं था।

यज्ञ में दक्षिणा के लिए पूर्वाग्रह भी उसी स्वाभिमान की निशानी है। विपत्ति में पड़ कर भी जो मनुष्य अपनी योग्यता और विद्या को प्रकट नहीं कर सकता वह भुखा ही मरता है। समय पर अपने व्यक्तित्व को उजागर करने से ही व्यक्ति सम्मान के साथ रोटी कमा सकता है, अन्यथा ऊंचे आदर्शों का भी पालन नहीं हो सकता। संकट के समय आपद् धर्म का पालन करके जीवन-रक्षा उचित है, परन्तु आपद् धर्म केवल संकट-काल के लिए है, सामान्य स्थितियों के लिए नहीं ।

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