बालक मार्कण्डेय Markandeya Rishi Poranik Katha / Kahaniya

Markandeya Rishi Poranik Katha - Kahaniya

पौराणिक कथा बालक मार्कण्डेय Markandeya Rishi Poranik Katha / Kahaniya – Hindi Poranik Katha / Kahaniya : पौराणिक कथा / पौराणिक कहानियां – मार्कण्डेय ऋषि की बाल कहानी

बालक मार्कण्डेय
Markandeya Rishi Poranik Katha / Kahaniya

बहुत समय की बात है। हमारे देश में मृकण्डु और मरुद्वाति नाम के पति-पत्नी रहते थे। हिमालय पर्वत के उत्तरी भाग में हरे-भरे पेड़ों और पर्वतों से घिरे अपने छोटे से आश्रम में वे बड़ी श्रद्धा और भक्ति से शिवजी की पूजा किया करते थे।

मृकण्डु बड़े सवेरे उठ कर पास बहते स्वच्छ झरने में स्नान करते तथा सुविकसित, सुगंधित-पुष्पों को चुन कर आश्रम में ले आते। जहां बड़े प्रेम से मरुद्वाति उन फूलों की माला बनाती। स्वच्छ चमकते पात्र में आश्रम की गाय का दूध दुहती। फिर वह शिवजी की पूजा करने बैठ जाती। उन्हें दूध से नहलाती, मंत्र पढ़ती और श्रद्धापूर्वक प्रणाम
कर माला भेंट करती।

इस प्रकार रहते और शिवजी की आराधना करते बहुत समय बीत गया। मृकण्डु और मरुद्वाति की आयु बढ़ने लगी, परन्तु उन्हें पुत्र का मुख देखना नसीव न हुआ। वे चिन्ता करने लगे, बुढ़ापे में हमारी देखभाल कौन करेगा? देवताओं की पूजा कौन करेगा? आश्रम की रक्षा कौन करेगा? क्योंकि उस जमाने में जमीन जोत कर अन्न उपजाने को पृथ्वी की पूजा करना कहते थे।

आकाश, वायु, अग्नि और जल, प्रकृति के इन वरदानों का उनके नियमों के अनुसार प्रयोग करना ही उस समय में इनकी पूजा करना समझा जाता था, और सारे विश्व की कल्याण कामना ही शिवजी की पूजा थी। सब लोग मिल कर एक ही समय में विश्व के कल्याण की कामना करें, संसार की सहायता के कामों में लग जाएं, इसीलिए शिवजी के व्यक्तित्व की कल्पना की गई थी क्योंकि शिवजी का ध्यान करते ही लोगों का ध्यान उनकी कल्याणकारी प्रवृत्ति पर केन्द्रित हो जाता है।

अन्त में हताश होकर दोनों पति-पत्नी एक दिन-शिवजी का ध्यान करते हुए आश्रम के निकट बैठ गए और बोले, ‘‘भोलानाथ! अब हम यहां से नहीं उठेंगे जब तक तुम हमारी इच्छा पूरी नहीं करोगे।’’

बैठे-बैठे उन्हें बहुत समय बीत गया, परन्तु उनका दृढ़ संकल्प नहीं टूटा। उनका विश्वास था कि हो न हो एक दिन शिवजी जरूर उनकी प्रार्थना सुनेंगे और उनकी इच्छा पूरी होगी। क्योंकि उन दिनों अपनी हठ मनवाने, अपना संकल्प पूरा कराने का एक ही तरीका था, तपस्या, जोकि आजकल के उपद्रव, हड़ताल और तोड़-फोड़ करने से कहीं अच्छा था।

आखिरकार शिवजी ने उनकी प्रार्थना सुन ली, उनकी तपस्या के आगे उन्हें हार माननी पड़ी। एक दिन बड़े सवेरे जव नित्यकर्म से निवृत्त होकर पति-पत्नी ध्यानमग्न बैठे थे, तो अचानक शिवजी प्रकट हुए।

भस्मांकित मुस्कराता चेहरा, नीला कण्ठ, माथे पर तीसरा नेत्र, हाथ में त्रिशूल, गले में सांपों की माला, सब कुछ ठीक-ठाक था।बोले। ‘‘मांगो, क्या मांगते हो’’ । ‘‘भगवन् , हमें पुत्र की प्राप्ति हो’’ वे बोले। ‘‘अच्छा यह बात है’’ शिवजी ने हंसकर उत्तर दिया, ‘‘कहो कैसा पुत्र चाहिए? गुणी परन्तु कम आयु वाला अथवा निर्गुण और बहुत दिन जीने वाला? ’’

मरुद्वाति ने पति की और देखा, फिर कहा, ‘‘भगवन्, हमें गुणवान पुत्र चाहिए, चाहे वह कम दिनों तक ही जीवित रहे ।’’ तथास्तु’ कहकर शिवजी मेघ- मंडल में बिजली के समान अन्तर्धान हो गए।

ठीक समय पर मृकण्डु दम्पति के यहां पूत्र उत्पन्न हुआ। नाम रखा गया मार्कण्डेय। ठीक ही है, मृकण्डु का पुत्र मार्कण्डेय ही तो कहलाएगा। मार्कण्डेय अभी पांच वर्ष का ही था कि उसके पिता ने उसे शिक्षा देना शुरू किया-‘‘बेटा हमेशा सच बोलना, प्रकृति के जीवों से मेल-मिलाप से रहना, उन्हें बिना कारण कष्ट मत पहुंचाना, कर्त्तव्य पथ से कभी न हटना।

भगवान् शिव की कृपा से हमने तुम्हें पाया है। उनके कहने के अनुसार तुम्हारी आयु अधिक नहीं होगी। परन्तु यदि तुम परिश्रम करोगे तो सब गुण तुम में वास करेंगे।’’

माता मरुद्वाति भी नित्यप्रति पुत्र को आश्रम सेवा का कार्य सिखाती, पेड़ पौधों को देखभाल, पृथ्वी से अन्न का उत्पादन, भोजन तैयार करने की कला, आश्रम की सुरक्षा, फिर शिवजी की पूजा जो सर्वोपरि थी। सभी कामों में मार्कण्डेय अपनी माता के साथ रहता, उससे सीखता, उसकी सहायता करता।

जब वह बारह वर्ष का हुआ तो माता-पिता से आज्ञा लेकर दक्षिण दिशा की ओर चल पड़ा। उसकी तीव्र इच्छा थी कि वह ऋषि अगस्त्य को खोजकर उनसे विद्या प्राप्त करे।

उन दिनों दक्षिण में अगस्त्य का बहुत नाम था। दूर-दूर से लोग आकर उनसे ज्ञान प्राप्त कर रहे थे। सुना जाता था कि वे पशु-पक्षियों, भालू-बन्दरों को भी पढ़ना-लिखना सिखा देते थे।

दक्षिण पहुंच कर मार्कण्डेय ने सबसे पहले एक सुन्दर नीले रंग का पत्थर ढूंढा और बड़े प्रेम-परिश्रम से उसे चिकना बनाकर शिवलिंग स्थापित किया। फिर वह प्रतिदिन नियमपूर्वक शिवजी की पूजा करने लगा।

शिवमन्दिर की सफाई, दूध और बेल के पत्तों को लाना, मन्दार के पुष्पों, बीजों को ढुंढना, उनकी माला बनाना, फिर स्नान कर सब कुछ शिवजी को अर्पित कर देता, अपने को भी । यह उसका नित्यकर्म बन गया। वह अगस्त्य मुनि की पाठशाला में भी जाता और वहां भी मन लगा कर अपना काम करता देश-विदेश से आए हुए विद्यार्थियों के बीच उसका बड़ा मन लगता।

एक बार सप्तऋषि यात्रा करते हुए दक्षिण की ओर आ निकले। मार्कण्डेय ने बड़ी श्रद्धा और भक्ति से सप्तर्षियों की सेवा की। मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु और वशिष्ठ ऋषि ये सातों ऋषि उसकी सेवा से वड़े प्रसन्न हुए ।

उन्होंने कुछ दिन दक्षिण में ही रहने का, निश्चय किया, यद्यपि उनका स्थायी निवास आकाश के उत्तरी भाग में मानसरोवर के ठीक ऊपर धु्रु व तारे के पास है। अन्त में वह दिन आ गया जब सप्तर्षियों को वापस लौटना था। एक-एक कर सातों ऋषियों ने मार्कण्डेय को आशीर्वाद दिया। परन्तु जब सब से अन्त में गुरु वरिष्ठ के मुंह से पुत्र दीर्घायु हो, ये शब्द निकले तो अचानक उनकी दृष्टि उसके माथे पर पड़ गई।

चाक्रायण का धर्मसंकट

Markandeya Rishi Poranik Katha / Kahaniya

मार्कण्डेय के ललाट की स्पष्ट रेखाएं उसकी अल्पायु की कहानी कह रही थीं। वसिष्ठ ने तुरन्त भांप लिया कि इस लड़के की मृत्यु निकट है और मेरा आशीर्वाद व्यर्थ जाएगा। सातों ऋषि बड़ीसोच में पड़ गए। वे मार्कण्डेय को सेवाओं से इतने प्रसन्न थे कि किसी प्रकार भी उसकी मृत्यु नहीं चाहते थे। खैर उस समय वे कुछ भी न बोलकर दौड़े-दौड़े ब्रह्मा के पास गए और उनसे बालक को दीर्घायु बनाने की प्रार्थना करने लगे।

सप्तर्षियों की बातें सुनकर ब्रह्मा बहुत जोर से हँसे। ‘‘आप लोग व्यर्थ ही चिन्ता करते हैं,’’ उन्होंने कहा, ‘‘यह लड़का तो शिव का उपासक है। शिवजी क्या अपने भक्त को छोड़ देंगे? आप लोग चिन्ता न करें। शिव का भक्त कभी कष्ट नहीं उठाता।’’ सप्तर्षिगण आाश्वस्त होकर अपने घर चले गए।

इधर दक्षिण में प्रवास करते और अगस्त्य मुनि से शिक्षा प्राप्त करते 4 वर्ष बीत गए थे। मार्कण्डेय 6 वर्ष का हो गया था। श्रव मृत्यु के देवता यम को भी अपने कर्त्तव्य की याद आई। तुरन्त अपना पाश हाथ में लेकर यम मार्कण्डेय के पास पहुंच गया और पीछे-से पाश का फंदा किशोरवय बालक के गले में डाल दिया। परन्तु मार्कण्डेय तो उस समय अपने इष्टदेव की पूजा में मग्न था। उसने यम से थोड़ा ठहर जाने को कहा।

बालक की वात सुनकर यम बहुत जोर से हँसा, ‘‘अरे मूर्ख! मौत भी किसी के लिए ठहरती है?’’ वह बोला और फन्दे का एक और लपटा बालक के चारो ओर खींच दिया, फिर उसे जोर से झटका। यम की जिद्द देखकर बालक मार्कण्डेय तुरन्त शिवलिंग से चिपट गया। अपनी लम्बी बलिष्ठ वांहों से उसने शिवजी को अपनी छाती से लगा लिया।

उसे लगा समस्त पृथ्वी का और उसका अपना कल्याण भी उस समय उसके शिवलिंग को चिपटाए रखने पर निर्भर है। चाहे जो हो जाए, वह शिवप्रतिमा को नहीं छोड़ेगा।

इधर यम के क्रोध का पारा चढ़ने लगा। उसे अपने काम में विलम्व की आदत नहीं थी। वह तो मिनटों में आता और आनन-फानन में अपना काम करके चला जाता था। यम ने अपनी पूरी शक्ति से रेशमी डोर को खींचा। बालक का गला रुंधने लगा। हे महादेव! रक्षा करो।’’ वह चिल्लाया। अचानक शिवलिंग उसके हाथ से छूट गया और भगवान शिव प्रकट हुए, अपने पूरे रौद्र रूप में।

बात यह हुई थी कि यम ने जब अहंकार में भर कर दूसरी बार अपना पाश फेंका तो शिवलिंग भी उसकी चपेट में आ गए। इससे शिवजी को असुविधा हुई और वे व्याकुल होकर प्रकट हुए । शिवजी के एक धक्के से यम पछाड़ खाकर गिर पड़ा और अपना पाश लेकर भागा।

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भोलेनाथ ने बालक का गोद में बैठा कर प्यार किया और उसे दीर्घायु होने का वरदान दिया। उस दिन मार्कण्डेय की आय 16 वर्ष की थी। शिवजी की कृपा से उसमें आजीवन 16 वर्ष के नवयुवक के समान कार्य करने की शक्ति आ गई और मृत्यु के जीत लेने के कारण उसी दिन से लोग भोलेनाथ को भी मृत्युंजय कहने लगे।

मार्कण्डेय अपनी दृढ़ इच्छा और संकल्प शक्ति के कारण ही मृत्यु को पराजित करने में सफल हुआ था। यदि उसमें स्वयं जीवित रहने की प्रबल कामना न होती तो शिवजी भी उसकी सहायता नहीं करते। क्योंकि भगवान् उन्हीं की सहायता करते हैं जो स्वयं अपनी सहायता करने को तत्पर रहते हैं।

मृत्यु के मुख से बचकर किशोर मार्कण्डेय और भी अधिक परिश्रम से पढ़ने लगा। उसके ज्ञान और विद्या की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी।

मार्कण्डेय बहुत काल तक जिए। अच्छे, बुरे, स्त्री-पुरुषों को उन्होंने बहुत निकट से देखा, प्रकृति की विनाशकारी और कल्याणकारी शक्तियों को अलग-अलग पहचाना और फिर अपने इस ज्ञान के निचोड़ को अ्रपनी पुस्तक मार्कण्डेय पुराण में लिख दिया।

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