“अधजल गगरी छलकत जाए” मुहावरे का अर्थ वाक्य प्रयोग और व्याख्या ! Adjal Gagri Chalkat Jaye

adjal gagri chalkat jaye - अधजल गगरी छलकत जाए

मुहावरा : “अधजल गगरी छलकत जाए” अर्थ – आधी भरी गगरी का जल छलकत ही नहीं, शोर भी मचाता है। ‘‘सम्पूर्ण कुम्भो न करोति शब्दं। अर्धोघटो घोषमुपैति नूनम्। आधी गगरी में पानी हिल-हिल कर अपनी ध्वनि से अपने अस्तित्व का बोध भी कराता है, जबकि आकंठ भरी गगरी का छल छलकेगा, पर शोर नहीं मचाएगा। विद्वान्, सुसंस्कृत, सुसभ्य मानव जलपूर्ण गगरी के समान गंभीर, शांत होते हैं, जबकि अल्पज्ञ, अज्ञानी, चंचल और समाजद्रोही तत्त्व अधजल गगरी के समान दिखावा करेंगे, अपने अस्तित्व को अनुभूति कराएँगे।

भावार्थ : “अधजल गगरी छलकत जाए” – सबल आत्मा भरी गगरी है, जो स्वतः छलकती है। निर्बल आत्मा अपनी आन्तरिक शान्ति को तिल-तिल जलाकर प्रदर्शित करती है। ‘होई विवेक मोह भ्रम भागा ‘पूर्ण जल युक्त गगरी की पहचान है। मोह- भ्रम से युक्त अल्प-विवेकी अपने पराक्रम का दिखावा करता है। ‘बुद्धि’ जल पूर्ण गगरी के समान ‘बुद्धिमान’ में अपना अस्तित्व प्रकट करती है।

अल्पज्ञ और अज्ञानी अपने ज्ञान का प्रदर्शन बढ़-चढ़ कर करते हैं। सड़क छाप ज्योतिषी अपने को ज्योतिषाचार्य कहेगा। पटरी पर दवा बेचने वाला अपने को डॉक्टर का बाप बताएगा, धन्वन्तरी का पट-शिप्य बताएगा। घर-घर आशीर्वाद बाँटते साधु अपने ‘स्वाद’ का प्रदर्शन करेंगे। कविता की पहचान से अनभिज्ञ पर रंग-मंच पर गला-फाड़ सफल कवियों पर ‘अज्ञेय’ जी ने अधजल गगरी के छलकने का प्रतीक रूप में कैसा सुन्दर चित्रण किया है-

किसी को
शब्द हैं कंकड़
कूट लो, पीस लो
छान लो, डिबिया में डाल लो
थोड़ी-सी सुगंध दे के
कभी किसी मैले के रेले में
कुंकुम के चाम पर निकाल दो।

धर्म की अधजल गगरी छलकती है तो लोग चौराहों तथा कब्रों को पूजते हैं। मिट्टी के ढेले में गणेश जी के दर्शन करते हैं। गेरुए वस्त्र पहने हर ढोंगी में महान् साधु की आत्मा के दर्शन करते हैं। माँस का भक्षण करने वाले अहिंसा में विश्वास व्यक्त करते हैं।

सामाजिक मान-सम्मान में जब अधजल गगरी छलकती हैं तो ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ की झड़ी लग जाती है। नैतिकता नग्नता का रूप लेती है और नग्नद फैशन का। जातिवाद का सूर्य गर्व से चमकता है तो छुआ -छूत का चन्द्रमा अपनी शीतलता में अग्नि बरसाता है। राष्ट्रपिता की मिट्टी पलीद होती है और वह शैतान की औलाद कही जाती है।

आज का भारत उस ‘गगरी’ का प्रतीक है जिसके मंत्रीगण अपने ‘अधजल जैसे’ ज्ञान से भारत के भाल को छलका रहे हैं। विश्व प्रांगण में गिरती प्रतिष्ठा, विश्व-शक्ति का भारतीय नीति पर दबाव, भारत की मृत प्रायः नैतिकता, अरबों रुपयों के उधार में उपजी आर्थिक विपनताय विदेशी पूँजी, विदेशी संस्कृति तथा सभ्यता का बढ़ता वर्चस्व, प्रांतीय सरकारों की अस्थिरता तथा कानून और अनुशासन की हीनता तथा महँगाई की मार से जब भारतवासी सुबक-सुबक कर रोता है और अपने विभाग के विशेषज्ञ मंत्री उज्ज्वल स्वप्नों के स्वर्णिम क्षितिज दिखाते हैं तो बुद्धिमान, पंडित और ज्ञानी भारतवासी, प्रौढ़ और चतुर राजनीतिज्ञ को भी मानना पड़ता है कि अधजल गगरी छलकती ही है।

अधजल गगरी का छलकते जाना उसका स्वभाव है, उसको प्रकृति है। प्रकृति में परिवर्तन कठिन ही नहीं असम्भव है। ;अतीत्य हि गुणान् सर्वान् स्वभावो मूर्धिन वर्तते ! नीम के साथ गुड़ खाने पर भी नीम अपने स्वभाव को प्रकट करता ही है, इसी प्रकार ओछा और छोटा आदमी दिखावा करेगा ही।

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