कर्मों का चक्र Madhya Bharat Ki Lok Katha ~ Karmo ka Chakra

Karmo ka Chakra

लोक कथाएँ/कहानियाँ (लोक कथाएँ/कहानियाँ (Lok Kathayen In HIndi) की श्रृंखला में हम लेकर आये हैं ‘युधिष्ठर कुमार’ द्वारा लिखी बहुत ही रोचक एवं मजेदार मध्य भारत की लोक कथा ‘’कर्मों का चक्र Madhya Bharat Ki Lok Katha ~ Karmo ka Chakra ~ Folk Tale in Hindi

कर्मों का चक्र
Madhya Bharat Ki Lok Katha ~ Karmo ka Chakra

बहुत पुरानी बात है, एक बार लक्ष्मी जी और सरस्वती जी में विवाद छिड़ गया। लक्ष्मी जी बोली, ‘‘मेरे आशीर्वाद के आगे भला कर्मो की क्या हस्ती हैं? परन्तु सरस्वती जी ‘प्रपनी बात पर अढ़ी थी कि हर एक को पिछले कर्मो का फल भोगना ही पडता है।

दोनो में बहस छिड़ गई और अन्त में लक्ष्मी जी ने कहा -‘‘हम दोनों चल कर लक्ष्मी के मन्दिर में मूति के पीछे छिप जायें। वहॉ जो कोई भी धन की इच्छा लेकर सबसे पहले आयेगा उसको में अपनी इच्छानुसार धन दूंगी फिर देखूँगी कि कर्म किस प्रकार उसे दुखी होने से रोकेंगे।’’

सरस्वती जी ने कहा -‘‘ठीक है और आपको एक नहीं तीन मौके मिलेंगे।’’

दोनों मन्दिर में जाकर लक्ष्मी जी की मूति के पीछे छिप गई।

मन्दिर के पास ही अन्वर नाम का एक गावं था। इसमें बलराम नामक एक लकड़हारा अत्यन्त गरीबी में अपने दिन काट रहा था। उसकी पत्नी का नाम सुनीति था। उसके एक पुत्र और एक पुत्री भी थी। वह प्रतिदिन लकड़ी काटता अथवा पडोसियों के काम करके अपना पेट पालता था, परन्तु तीन रोज से लगातार वर्षा हो रही थी, जिसके कारण वह घर से काम करने को न जा सका तथा घर से अन्न का एक दाना न ला सका। बालक भूख से व्याकुल थे और माता-पिता विवश थे।

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Lok Katha ~ Karmo ka Chakra

दिन निकलते ही वर्षा रुकी और सुनीति ने कह सुन कर बलराम को काम की खोज में भेजा। बलराम ने वन में लकड़ी काटी ओर फूल जमा किये। फिर कुछ फूल लेकर वह लक्ष्मी जी के मन्दिर की ओर चला।

बलराम अत्यन्त भाग्यवान था, क्योंकि वही पहला मनुष्य था, जोकि उस मन्दिर में सबसे पहले पहुँचा जिसमें दोनों देवियाँ छिपी बेठी थीं।

बलराम ने मूति की पूजा की, फूल घढ़ाये ओर धन के लिए हाथ जोड़ कर प्रार्थना करने लगा।

देवी लक्ष्मी ने उपयुक्त अवसर देखकर मोहरों की वर्षा कर दी। बलराम आँखें फाड़-फाड कर देख रहा था कि क्या यद्द सत्य है। अथवा स्वप्न ? बढ़ी देर में उसे विश्वास हुआ कि देवी लक्ष्मी वास्तव में उस पर प्रसन्न हो गई हैं।

मन्दिर के कोने में मिट्टी की एक हडिया रखी थी। सब मोहरें उसमें भर कर आनन्द से उछलता हुआ वह अपने घर पहुँचा। बाहर से ही उसने अपनी पत्नी को आवाजें देनी शुरू की कि देखो सुनीति में क्या लाया हूँ, परन्तु वह अपनी किसी पड़ोसिन से आटा उधार माँगने गई हुई थी वह उसे ढूँढ़ने को बाहर चल दिया।

थोड़ी देर में दोनों पति-पत्नी वापिस आ गये। बलराम तो खुशी-खुशी सब बता रहा था, परन्तु सुनीति उस पर विश्वास नही कर रही थी। घर में आकर दोनों ने देखा कि हडिया भर अशफियों तो क्या, एक भी अशर्फी नहीं है। बलराम कटे पेड़ की भाँति गिर पढ़ा और सुनीति उसे गालियों सुनाने लगी। अब वह बोलता भी क्या? चुप पड़ा रह्य !

अगले दिन प्रातःकाल वह फिर देवी के मन्दिर पहुँचा। लक्ष्मी सोच रही थो कि बलराम अब धनी हो गया है। अतएव बहुत सारी सामग्री लाकर पूजा करेगा। परन्तु बलराम ने रो-रो कर सारी कथा सुनाई।

अब की बार देवी लक्ष्मी ने अपने गले का मणिमुक्ताओं का हार उसके ऊपर फेंक दिया। वह अत्यन्त खुश होकर वहाँ से चल दिया।

रास्ते में उसे ध्यान आया कि कल उसने धन मिलने पर निर्मल जल में स्नान करके पूजा नहीं की थी, शायद इसीलिए उसका कल वाला धन खो गया। यह सोचते ही वह सरोवर पर जा पहुँचा और हार को कुर्ते की जेब मे भलीभॉति बाँध कर कपड़े जल के किनारे रख दिये और नहाने को घुस गया।

जब वह सूर्य की और मुँह करके उसे जल दे रहा था, कपडों की ओर उसकी कमर थी। हार जरा-सा जेब में से चमक रहा था। मछली उसे कोई खाद्य वस्तु समझ चट से निगल गई।

इधर बलराम स्नान से निवृत्त होकर आया तो हार को गायब देख कर रोने लगा। सब जगह उसने हार ढुँढा पर वहाँ हार कहाँ। घर पहुँच कर उसने रोते-रोते अपनी पत्नी को सब हाल सुनाया, परन्तु उसने विश्वास करने के बजाय और उसे चार बातें सुना दीं।

अगले दिन बलराम फिर देवी के मन्दिर देर से पहुँचा। लक्ष्मी जी सरस्वती जी से कह रही थी – ‘‘देखो आज बलराम नहीं आयेगा। अब वह अमीर हो गया है। यह मनुष्य बडे धूर्त होते हैं।’’

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Madhya Bharat Ki Lok Katha ~ Karmo ka Chakra

परन्तु कुछ ही क्षण पश्चात बलराम रोता हुआ आ पहुँचा और आकर सब हाल सुनाने लगा।

देवी लक्ष्मी, देवी सरस्वती से कहने लगी-‘‘यह मनुष्य बड़ा मूर्ख मालूम होता है।’’

सरस्वती बोली-‘‘मूर्ख नहीं है। इसके बुरे कर्मो का चक्र अभी समाप्त नहीं हुआ है।’’

लक्ष्मी जी चिढ़ कर बोली ‘‘फिर वही कर्म-चक्र। अच्छाअबकी बार इसको बढ़ा कीमती एक छोटा-सा पत्थर दूंगी, देखे इसे कौन लेता है।’’

ऐसा कह कर उन्होंने एक छोटा मूल्यवान पत्थर उसके आगे फेक दिया। बलराम ने उसे तुरन्त उठा लिया और आँखें फाढ़-फाड़ कर देखने लगा। अब वह उसे मुट्ठी मे दवाये घर की ओर भागा।

उसे सुनीति के पास पहुँचने की जल्दी थी। आधे रास्ते आकर वह मुट्ठी खोल कर देखने लगा कि कहीं अमूल्य पत्थर हाथ में से गायब तो नहीं हो गया। पत्थर लाल-लाल चमकते देख कर एक चील उसे खान की वस्तु समक कर उससे एक ही झपाटे से छीन कर ले गई।

अब तो बलराम सर पीट कर रह गया। उसने घर जाकर अपनी पत्नी को कुछ न बताया और चुपचाप जाकर लेट गया। उसे ऐसा लेटा देख कर सुनीति का हृदय भर गया, तथा वह उसे खोये हुए धन के लिए सांत्वना देने लगी।

अगले दिन वह मन्दिर न जाकर मजदूरी करने को चला गया। क्योंकि सुनीति को ऐसी ही इच्छा थी।

उधर मन्दिर में देवी लक्ष्मी कहने लगी-‘‘अब बलराम जरूर लखपती हो गया होगा। भला वह अब यहाँ क्यों आयेगा।’’ परन्तु सरस्वती बोली ‘‘नहीं बहिन ऐसा नहीं हुआ। वह अभी उतना ही गरीब है और शाम को उसके बुरे कर्मों का प्रभाव समाप्त होगा, तब वह अवश्य ही लखपती बनेगा।’’

शाम को बलराम को आठ आने मिले। उससे वह आटा, नमक, तेल तथा मछली आदि खरीद कर घर चला। उसकी पत्नी तथा बच्चे यह सब देख कर अत्यन्त प्रसन्न हुए।

पत्नी ने घर में जाकर भोजन की तैयारी शुरू की ओर वह कुल्हाड़ी लेकर लकड़ी लेने चला। भाग्यवश यह उसी कीकर की डालों को काटने लगा जिसमें उस चील का घोंसला था तथा वह मूल्यवान पत्थर उसमें रखा था। उसको देखते ही खुशी के मारे लकड़ी ओर कुल्हाड़ी सब छोड कर घर की ओर भागा । वह कहता जा रहा था, सुनीति, चोर मिल गया! चोर मिल गया?

उधर सुनीति ने जब मछली काटी तो उसके पेट में से वह हार निकल पड़ा। वह उसे दिखाने को बाहर लेकर भागी। वह भी कहती जा रही थी, ‘‘चोर मिल गया। चोर मिल गया।’’

यह शोर सुन कर पड़ोस की कुबढ़ी बुढिया घबरा गई, क्योंकि उसी ने पहले दिन वह मोहरों से भरी हंडिया चुराई थी। वह समझी शायद उसी की चोरी पकडो गई है, ओर अब उसी के घर वह उसे पकड़ने आ रहे हैं। वह चुपके से उस हडिया को उसी कोने में रख आई। घर आकर दोनों चकित रह गये क्योंकि उनकी तीनों चीजें मिल चुकी थीं। अब वह लखपती क्या करोड़पती बन गये, तथा सुखपूर्वेक जीवन बिताने लगे।

सत्य की कसौटी

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