अनोखी हड्डी का वजन ~ Hindi Lok Katha – Anokhee Haddee ka Vajan

Hindi Lok Katha Anokhee Haddee ka Vajan

लोक कथाएँ/कहानियाँ (लोक कथाएँ/कहानियाँ (Lok Kathayen In HIndi) की श्रृंखला में हम लेकर आये हैं ‘भीष्म साहनी’ द्वारा लिखी बहुत ही रोचक एवं मजेदार लोक कथा ‘’अनोखी हड्डी का वजन ~ Hindi Lok Katha – Anokhee Haddee ka Vajan ~ Folk Tale in Hindi

अनोखी हड्डी का वजन
Hindi Lok Katha – Anokhee Haddee ka Vajan

‘स्वर्ण देश’ के महाराज उदयगिरि पचास वर्ष की अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते महाराजा-धिराज हो गये। देश-देशान्तरों में उनकी विजय-पताका लहरा चुकी थी, उनके पराक्रम फा कोई पारावार न था। अनेक बन्दी राजा उनके भीमकाय दुर्ग में अँधेरी दीवारों को ताकते हुए दम तोड़ रहे थे, और उन्हीं के देशों की सुन्दर रमणियॉ महाराज के अन्त पुर की शोभा बढ़ा रही थीं। जब भी महाराज की सेना किसी राज्य को रौंद कर लोटती, तो महाराज की विपुल स्वणराशि और भी बढ़ उठती, और उनके मुकुट में नये हीरे-मोती चमकने लगते। पर महाराज की आँखें अब भी क्षितिज पर अटकी हुई थीं।

वर्षा ऋतु के अन्तिम दिन थे। महाराज अपने मन्त्रियों के साथ अपने राज्य के उत्तरी पर्वतों पर आखेट खेल रहे थे। दोपहरी ढक चुकी थीं। महाराज एक नव-व्यस्क हिरन का पीछा करते हुए अपना रास्ता भूल गये।

आखेट की उत्तेजना में वे मीलों की दूरी तक अपना घोड़ा दौडाते चले गये। पर हिरन का कुछ पता न चला। जंगल की सीमा आन पहुँची ओर महाराज थक कर एक पेड़ के नीचे खड़े हो गये। पर दूसरे ही क्षण महाराज ने सामने आँख उठा कर देखा तो पुलकित हो उठे।

ढलते सूर्य के लाल प्रकाश में सामने एक विशाल पर्वत अपना गर्वपूर्ण माथा ऊँचा किये खड़ा था, और उसके पॉवों में एक बड़ी-सी नीली झील बिछी हुई थी। झील इतनी स्वच्छ थी, मानो प्रकृति के अथाह सौन्दर्य के लिए एक दर्पण हो । पहाड़ की तराइयॉ देवदारु के वनो से लदी हुई थीं, और दाई और ढलान पर एक छोटा-सा नगर बसा हुआ था, जिसकी छतें सायंकाल के घुॅधले प्रकाश में दूर तक फैलती हुई नजर आ रही थीं।

महाराज इस अपूर्व दृश्य को एकटक देख रहे थे। इतने से उनके साथी उन्हें ढूॅढते हुए आ पहुँचे।

‘‘मैं नहीं जानता था कि मेरे राज्य में ऐसे सुन्दर प्रदेश भी मौजूद हैं। ”महाराज ने प्रसन्न होकर कहा। पास खड़े हुए महामन्त्री ने हाथ बॉध कर उत्तर दिया

‘‘महाराज, यह प्रदेश आपकी राज्य-सीमा से बाहर है। आपके राज्य को सीमा यहाँ पर समाप्त हो जाती है जहाँ पर आप खड़े हैं।’’

“तो क्या यह प्रदेश मेरे राज्य का अंग नहीं है ?

‘‘नहीं महाराज, यह एक छोटा-सा स्वाधीन देश है, जिसके लोग मछुलियाँ पकड़ कर अपना निर्वाह करते हैं।’’

महाराज के मन में एक गहरी टीस उठी और उनकी आँखें ईर्ष्या से विचलित हो उठीं।

‘‘यह मेरे देश का अंग नहीं है।’’ कहते हुए और अपने हाथो की उंगलियाँ एक मुट्ठी में समेटते हुए वे दृढ़ निश्चय से बोले: ‘‘आज ही लोट कर सेना को तैयार करो, महामन्त्री, में स्वयं इस प्रदेश पर चढ़ाई करूंगा। मेरे राज्य की सीमा अब वह पर्वत-शिखिर होगा।’’ कहते हुए महाराज वहाँ से लौट पड़े।

इस घटना को अभी दस दिन भी न होने पाए थे कि वह शान्त वनस्थली सैनिकों के सिंहनाद से गूजने लगी। जंगल के हिंसक पशु भी मद्दाराज के पराक्रम से व्रस्त होकर भाग उठे। मील की शान्त जलराशि, जिस पर पहले गाते हुए मछुए मछलियाँ पकड़ने थे, अब उन्हीं के खून से लाल होने लगी। महाराज के वीर सैनिका की वाण-वर्षा पेड़ों ओर पत्थरो को भी क्षत-विक्षत करने लगी।

तीन दिन बीत गये। महाराज की सेना मील पार करके नगर की दीवारों तक जा पहुँची। पर तो भी मछुआ ने हथियार नहीं डाले। रात के वक्त, जब महाराज की सेना मे विजय का कोलाहल होता, वहॉ नगर पर मरत्घट की-सी स्तच्धता छा जाती।

कहीं पर कोई टिमटिमाता दीपक भी नजर न आता। मछुए, बच्चे, बूढ़े दिन भर लड़ने, और रात को अपने मृत सम्बन्धियों की लाशों को ठिकाने लगाते, अपने जख्मो को मछलाते, फिर इस कराल अन्धकार में कहीं भी आशा की कोई रेखा न देखते हुए, धरती पर हाथ रख कर अपने प्राणों की बलि देने की शपथ ले लेते।

सत्य की कसौटी

Anokhee Haddee ka Vajan

प्रात काल का समय था। महाराज अपने शिविर में बैठे नये आक्रमण का आयोजन कर रहे थे, इसी समय द्वारपाल ने आकर प्रणाम किया।

‘‘महराज, एक आदमी द्वार पर खडा है, आपसे मिलना चाहता है।’’

‘‘कौन है?

‘‘कोई बूढ़ा आदमी है, महाराज। कहता है मरने से पहले महाराज के दर्शनों की लालसा से यहाँ आया हूँ।’’

‘‘कोई राजदुत होगा।’’ एक मन्त्री ने कहा।

‘‘या छद्मवेप में कोई सैनिक होगा।’’ दूसरे मन्त्री ने कहा।

‘‘उसके पास कोई अस्त्र नहीं, महाराज। वह् बहुत बूढ़ा है, और लाठी के सहारे बडी कठिनता से खडा हो पाता है।’’ ,

महाराज ने प्रवेश की स्वीकृति दे दी।

थोड़ी देर बाद एक बृद्ध पुरुष, लम्बा, मैला-सा चोगा पहने, अवस्था के बोझ से दबा हुआ, अपनी लाठी पर झुक कर चलता हुआ, महाराज के सामने आ खड़ा हुआ।

‘‘तुम कौन हो? मेरे पास समय बहुत थोडा है। महाराज ने कहा

‘‘बूढा नमस्कार करते हुए बोला, ‘‘महाराज समय तो मेरे पास भी बहुत थोडा है। महाराज के यश और कीर्ति से चारों दिशाएँ गूँज रही हैं, में आपके दर्शनार्थ यहाँ चला आया हूँ।’’

महाराज थोड़ी देर तक उसके चेहरे की ओर देखते रहे फिर धीरे से बोले

“शत्रु-देश से आए हो ?

‘‘नहीं महाराज, में आप ही के राज्य का सेवक हूँ, यहाँ से थोड़ी दूरी पर मेरा झोपड़ा है ।’’

‘‘तुम्त क्या चाहते हो ?’’

“दान-दक्षिणा का प्रार्थी हूँ, महाराज में बहुत बूढ़ा हूँ।’’ कहते हुए बृद्ध ने अपने लम्बे वस्त्र की जेब में हाथ डाला और एक छोटी-सी सफेद हड्डी का टुकड़ा निकाल कर बोला, ‘‘मुझे इस हड्डी के वजन के बराबर सोना दे दिया जाए महाराज, मुझे और कुछ नहीं चाहिये ।’’

महाराज ने हड्डी को देखा-नाखून से बड़ी वह हड्डी न थी-और उसे देख कर अकस्मात् हसने लगे।

‘‘वृद्धावस्था में लोग पागल हो जाते है। इस हड्डी के तुल्य तो एक रत्ती-भर सोना भी न आएगा, वृद्ध और कुछ माँगो।“

‘‘मेरे लिये आपके हाथ का दिया हुआ कण-भर सोना भी निधि के समान होगा, महाराज।’’

महाराज ने हंसते हुए तराजू मगवाने का आदेश दिया, और पास पड़े हुए चाँदी के थाल में से दो स्वर्ण-मुद्राएँ उठा कर बूढ़े की ओर फेंक दीं

‘‘इनके साथ हड्डी को तोला ’’

एक पलडे में हड्डी का टुकडा रखा गया, और दूसरे में मुद्राएँ। पर जब मन्त्री ने तोला तो हड्डी का टुकडा भारी निकला, महाराज लज्जित हुए, और फौरन ही दो मुद्राएँ और निकाल कर तुला में डाल दी।

याचक की प्रार्थना भले ही छोटी हो, पर दानी के दान में उदारता होनी चाहिए।

पर हड्डी का पलड़ा फिर भी भारी निकला।

महाराज हैरान हुए, ओर तुला में से हड़ी को निकाल कर देखने लगे फिर उत्तेजित हाथों से चॉदी के थाल में से एक साथ मुट्ठी भर मुद्राएं उठा कर तुला में डाल दीं, और तुला को अपने हाथ में लेकर स्वयं तोलने लगे।

पर पहले की तरह हड्डी का पलड़ा अब भी भारी निकला।

सब दरबारी चकित होकर तुला के पास आ गये। सहाराज विश्मय से हड्डी को देख रहे थे मौका देखकर वृद्ध ने हाथ बॉध कर कहा:

‘‘महाराज, में अपनी हड्डी को वापिस लेता हूँ । शायद आपके पास इसके बराबर सोना दान के लिये नहीं है।’’

महाराज इस अपमान को सहन न कर सके। एक बड़ी तुला मगवाई गई और उसके एक पलडे में यह तुच्छ-सी हड़ी ओर दूसरे मे चमकती मुद्राओ से भरा सारा-का- सारा थाल उॅंडेल दिया गया।

पर हड्डी का टुकड़ा ज्यो-का-त्यो भारी निकला।

‘‘यह जादू की हड्डी है, वृद्ध तुम मेरा अपमान करने आए हो।’’

महाराज की ओंखे दम्भ और क्रोध से लाल हो उठीं। न वह हड्डी को बाहर फेक सकते थे, न ही उसके बरावर सोना जुटा सकते थे।

इससे भो बडी तुला मंगवाई गई। मुद्राओं के स्थान पर सोने की इंटें रख दी गई पर नन्हीं-सी सफेद हड्डी फिर भी भारी निकली।

गधे की हजामत

Anokhee Haddee ka Vajan

एक पागल जुआरी की तरह महाराज इस तुला पर अपनी स्वर्ण-राशि लुटाने लगे।

दरवारी चित्रवत् खड़े इस व्यापार को देख रहे थे। महाराज के माथे पर पसीने के बिन्दु नजर आने लगे।

वृद्ध धीरे-धीरे मुस्काने लगा, फिर हाथ बांध कर बोला:

‘‘महाराज , आपका राज्य बहुत बहा है, पर आपके राज्य की धनराशि तो क्या, संसार भर के राज्यों मे इसकी तुलना या सोना न मिल सकेगा।’’

महाराज की सॉस फूली हुई थी। वह नजर उठा कर बोले ‘क्या कहा संसार भर का सोना इस हृड्डी की तुलना नहीं कर सकता?’’

‘‘हाँ महाराज। संसार के सात सिन्धुओं का पानी भी यदि सोना बन जाए तो इस हड्डी की प्यास को नहीं बुझा पाएगा।’’

महाराज चुप हो गये, और एकटक वृद्ध के चेहरे की ओर देखने लगे। फिर धीरे से बोले ‘‘क्या बात है, वृद्ध ? इस हड्डी का क्या भेद है ?’’

‘‘यह कामना की हड्डी है, महाराज। इसकी प्यास सदा बढती है, कभी बुझती नहीं।’’

महाराज विस्मय मे आ गये। उनकी गम्भीर मुद्रा पर आवेश, पराजय और नम्रता के भाव नजर आने लगे। उनकी आंखें वृद्ध के चेहरे पर से हट कर अनोखी हड़ी पर आ गई।

‘‘तो क्या वृद्ध, ससार भर की सम्पत्ति इस हड्डी से हल्की ही रहेंगी?’’

‘‘हाँ महाराज।’’ वृद्ध ने कहा। फिर धीरे से बोला- ‘‘यह मछुओं का छोटा-सा देश तो इसके पलडे को छू तक न पाएगा महाराज।’’

‘‘तो वृद्ध, क्या इस हड्डी की तुलना संसार की कोई भी वस्तु नहीं कर पाएगी ?’’

वृद्ध मुस्काया, फिर उसने धीरे से अपने पास खड़े हुए एक सैनिक के हाथ में से उसकी कटार ले ली और दूसरे ही चण अपने हाथ को जख्मी कर लिया।

‘‘यह तुमने के क्या किया वृद्ध ? अपना हाथ काट लिया?’’ महाराज ने हैरान होकर पूछा।

वृद्ध ने अपने जख्मी हाथ पर से टपकते लहू की एक बूँद तुला में डाल दी। देखते ही-देखते हड्डी का पलडा ऊँचा उठने लगा, यहाँ तक कि खून की बूंद का पलडा बोझल हो गया।

‘‘महाराज उदयगिरि, मेरा रक्त तो बूढा हो चुका है, उसमें कोई सपन्दन नहीं, पर एक युवक या एक बच्चे के खून का तो स्पशंसात्र भी भारी होगा।’’

महाराज विचलित हो उठे और चुपचाप शिविर में से बाहर निकल कर मील के सामने आ खड़े हुए।

वाण की वर्षा अब भी उसी वेग से चल रही थी, और मील का पानी अब भी लाल हो रहा था। मील के सामने खडे महाराज, बड़ी देर तक कभी हड्डी को देखते, कभी मील के रक्त-रच्जित पानी को देखते।

कहते हैं, दुसरे दिन प्रात. जब दुन्दुभि बजने का समय हुआ तो मछुओ ने देखा कि महाराज उदयगिरि की सेनाएँ वापिस लौट रही हैं, और वनों से भागे हुए पशु पक्षी फिर से धीरे-धीरे अपने घरों ओर घोंसलों को लौटने लगे है।

काठ का उड़न घोड़ा

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