शिल्पी की देन Hindi Lok Katha | Shilpi Ki Dain ~ Folk Tale in Hindi

Hindi Lok Katha Shilpi Ki Dain

Lok Kathayen लोक कथाएँ/कहानियाँ की श्रृंखला में हम लेकर आये हैं बहुत ही रोचक एवं मजेदार लोक कथा ‘शिल्पी की देन Hindi Lok Katha | Shilpi Ki Dain ~ Folk Tale in Hindi’ आइये जानते हैं !

शिल्पी की देन Hindi Lok Katha | Shilpi Ki Dain ~ Folk Tale in Hindi

उड़ीसा प्रदेश में प्राकृतिक सौन्दर्य पर नया रुप देखने को मिलता है। उसके दक्षिण में सागर की लहरें यहां की धरती पर मुस्कान विखेरनी है, तो चन्द्र मागा, सुर्ण रेखा और बुढ़ापन की त्रिकोण भूमि पर घान की खेती सहलहाती है। महानदी और इन्द्रावती अपने जन से वहाँ जीवन लाती है। जबकि सुन्दर झरनों और बड़े-बड़े बारागाहों का रूप मन को मोह लेता है।

आज से लगभग सात सौ वर्ष पूर्व यहाँ गंग-वंश के महाप्रतापी राजा नरसिंह देव राज्य करते थे। उनको मन्दिर तथा सुन्दर भवनों को बनवाने की ओर बड़ी रुचि थी।

उनकी राजधानी समुद्र के किनारे थी। वहाँ नित्य ही दूर-दूर देशों से शिल्पी आकर आश्रय लेते थे। नगर के व्यापारी तो दूर नौयामा, बंपा, ब्रह्मदेव, सुवणद्वीप, सिंहल आदि देशों में जाते और वहाँ की जलवायु, रहन-सहन तथा व्यापार की सभावना के बारे में
महाराज को बताया करते थे। वहाँ के नाविक सुन्दर पोतों को सागर में खेते हुए उसकी लहरों की मदमाती और सुहावनी पुकारे सुनकर नए-नए गीत रचते थे।

एक दिन वर्षा ऋतु के समाप्त होने के बाद महाराज अपने राज्य के भ्रमण को निकल पड़े। प्रातःकाल का समय था। चन्द्रभागा नदी की वेगवती धारा सागर का आलिगन करने के लिए आगे बढ़ रही थी और सागर की लहरें अपनी वहिन को अपनाने को वाहें फैलाये हुए मिली। सूर्योदय के साथ सागर में लाली छाई और सूर्य भगवान की किरणें उस प्रदेश में प्रवेश करने लगीं।

महाराज उस दृश्य को देखकर बहुत प्रभावित हुए और उनके मन में बात उठी कि क्यों न वहाँ सूर्यदेव के मन्दिर का निर्माण किया जाय?

उनके सम्मुख एक घुंधला सा चित्र आया। उस मन्दिर की यह विशेषता होगी कि समुद्र से आती हुई सूर्य की किरणें प्रमुख द्वार से शनैः शनैः प्रवेश करती हुई प्रथम कोष्ट पार कर सूर्यदेव की प्रतिमा के चरणों का स्पर्श करेंगी।

उन्होंने कल्पना की कि सुबह को जब सूर्य की किरणें प्रथम प्रांगण पार कर द्वितीय प्रागण में आकर चबूतरे पर स्थिर मूर्ति के चरणों की वन्दना करती होंगी तो वह बहुत ही आकर्षक दृश्य होगा।

गधे की हजामत

Shilpi Ki Dain

जब वे राजधानी लौट कर आए तो उनको अपने संकल्प की याद आई। एक दिन दरबार में भी उस बात की चर्चा कर मंत्री को आदेश दिया कि अपने राज्य तथा बाहर के प्रदेशों में यह सूचना प्रसारित करा दी जाय कि वे सूर्य भगवान के मंदिर का निर्माण करना चाहते हैं। शिल्पियों को उनकी योग्यतानुसार पुरस्कार दिया जायेगा ।

कुछ दिन बाद वहाँ दूर-दूर के नगरों से शिल्पी आने लगे। एक दिन वे उन सबको लेकर उस स्थान पर गये और अपने मन की बात कही। उनको तीन मास का समय मानचित्र बनाने के लिये दिया।

कई शिल्पियों ने अपनी कारीगरी के नमूने उनको दिखाए.पर उनको संतोष नहीं हुआ। उनमें से कोई भी महाराज के मन की बात न समझ सका था। इससे महाराज को बड़ी निराशा हुई। तभी एक दिन विशू नामक एक महान शिल्पी ने आकर महाराज के आगे अपना मानचित्त प्रस्तुत किया।

विशू ने बताया कि वह एक विशाल रथ बायेगा, जिसकी पीठ सैकड़ों गज लम्बी होगी और उसमें चोबीस पहिये होंगे। फिर रथ को खीचने के लिए वह पर्वत के समान सात भव्य घोड़ों का निर्माण करेगा। इस रथनुमा मंदिर के भीतर सूर्य भगवान की प्रतिमा रहेगी। उसकी विशेषता यह होगी कि सागर से आते हुए सूर्य की किरणें मुंख्य द्वार से धीरे-धीरे प्रवेश करती हुई प्रथम कोष्ठ पार कर सूर्य देव के चरणों का स्पर्श करेंगी और फिर महाराज की इच्छानुसार सूर्य-प्रतिमा के चरणों पर जावेगी।

शिल्पी ने-सुझाया कि सात अश्व सप्ताह के सात दिवस तथा चोबीस चक्र वर्ष के चौबीस पक्ष होंगे। प्रत्येक चक्र में आठ- भर होगे जो रात-दिन के आठ पहरों का बोध करावेंगे। उसने इस कार्य के लिये बारह सो कारीगर और लगभग चार हजार मजदूरों की माँग की। उसने विश्वास दिलाया कि सम्पूर्ण निर्माण-कार्य ठीक समय पर हो जायेगा।

सत्य की कसौटी

Shilpi Ki Dain – Hindi Lok Katha

अब उस स्थान पर दूर-दूर से शिल्पी, और मजदूर आने लगे। इन लोगों का काम ही निर्माण करना था। राजाओं की रूचि धरती पर सुन्दर भवन और मंदिर बनाने की हो गई थी। इसलिए उनको काम की कमी नही थी। उनकी ग्रोष्ठियाँ होतीं। जहाँ कई महत्त्वपूर्ण निर्णय लिये जाते ये। विशू अपने साथियों को बताता कि मानव ने अपने श्रम से ही देवत्व को प्राप्त कियाहै। मनुष्य बहुत बलवान है, फिर श्रमिक तो अपने पसीने को कमाई पर जीकर जीवन का आनंद उठाता है। यह सुनकर सबको बड़ो स्फूति मिलती थी। वे दिन भर काम करते और रात को नाच-रंग में मस्त रहते थे।

उस स्थल पर धीरे-धीरे एक छोटा नगर बस गया। सब अपने काम पर जुट गए। चद्रभागा और सागर के संगम पर शिल्पी ने सैकड़ों गाड़ियां भारी-भारी पत्थरों की डालीं। लेकिन वे तेज प्रवाह में वह जाते। उस पर विजय पाना आसान नहीं लगा। वहाँ के स्थानीय लोगों का अंधविश्वास था कि सागर में मछलियों का राजा रहता है। उसे मनुष्य की हरकतें पसन्द हीं है, इसलिये वह उन पत्थरों को निगल डालता है।

कई महीने बीत जाने पर भी नीव न डाली जा-सकी । वीशू की चिन्ता बढ़ी और फिर वह हताश हो गया ।

वह महीने का अन्तिम दिन था और सबकी छुट्टी थी। कुछ सोचकर वीशू प्रातःकाल घूमने के लिये निकल पड़ा।

वह अपने ध्यान में मग्त होकर जंगल के बीच वाली बटिया पर बढ़ रहा.था। सुबह की घूप वन में झांक रही थी। चारों ओर सुन्दर पेड़-पौधे खड़े थे। उसे देखकर एक धारीदार गिलहरी पेड़ के पीछे छिप गई। वह बड़ी देर तक उधर देखता रह गया । अब गिलहरी के दो कान दिखलाई पडे, फिर माथा सामने आया ओर अंत में उत्सुकता से भरी हुई दो आंखें। वह उसके साथ बच्चों की भाँति आंख-मिचौनी खेलने लगी।

वह अपनी धुन में ही आगे बढता गया। अब वन समाप्त हो गया था और खेत फैल रहे थे। दोपहर भी हो आई थी। सामने गाँव देखकर उसे बड़ी प्रसन्नता हुई । वह बहुत थक गया और उसे बड़ी भूख लग रही थी। तेजी से बढ़ कर गाँव के पास पहुँचा और पहली झोपड़ी मे उसे एक बुढ़िया मिली।

उसने उसे प्रणाम कर कहा, बूढ़ी माँ, मैं बहुत प्यासा हूँ। भूख भी लगी हुई है। क्या आप मुझे कुछ खाने को दे सकेंगी?

बुढिया ने उसे प्यार से बुलाया। हाथ-मुँह धोकर वह आराम से लेट गया। इस बीच बुढ़िया ने खिचड़ी बनाई और थाली पर रख कर लाई। वह समझ गई कि मन्दिर के निर्माण में कार्य करने वाला कोई कारीगर है। बस थाली आगे रख कर बोली, बेटा, हमारे यहाँ की प्रथा है कि खिचड़ी बीच से खाई जाती है. तू भी इसी तरह से खाबेगा तो स्वादिष्ट लगेगी।’’

उसकी बात मान कर शिल्पी ने बीच से खाने की चेष्टा की तो उसकी उंगलियाँ जल गईं और जीभ पर छाले पड़ गए। यह देखकर बुढ़िया- हँसी ओर बोली, बेटा हमारा विशू भी इसी भांति मन्दिर की नीव डाल रहा है।

क्या माँ ?

फैसला सूझबूझ का

Shilpi Ki Dain – Folk Tale in Hindi

बेटा, खिचड़ी किनारे से खानी चाहिए। वहाँ वह ठंडी रहती है। इसी भांति चन्द्रभागा के बीच में बड़ा वेग है। इतना बड़ा कारीगर जानकर भी वहाँ पत्थर डाल रहा है। उसकी समझ में यह नहीं आया कि किनारे से पत्थर डालकर वह नदी का प्रवाह कम कर सझता है। इस तरह नींव आसानी से पड़ जायगी।

वीशू ने खाना खाया। बूढ़ी माँ को धन्यवाद देकर लौठा।

राह में सोचता रहा कि उसके कई साथियों ने भी यही सुझाया था, पर उसने उनकी बात नहीं मानी। अपनी भूल पर वह बहुत पछताया।

अगले दिन उसने नदी के किनारे से नींव भरनी आरंम की और उसे पूर्ण सफलता मिल गई। अब वह अपने साथियों के साथ काम पर जुट गया। उसने सूर्य भगवान की मूर्ति के लिये चौकोर गर्भगृह बनाया।

227 फुट की ऊंचाई पर कलश रखने के लिए स्थान निर्मित किया। सूर्य के घोड़ों पर बारीक रेखाएँ खींच कर इतनी भव्य मूत्तियाँ गढ़ीं कि वे सजीव लगने लगी। सच ही वे अश्व सजीव मुद्रा में शक्ति से उफनते हुए तीद्र गति से बढ़ने लगते थे। ऐसा अनुमान होता था कि सारथी उनको रोकने में अपने को असमर्थ पा रहा था!

मन्दिर में ऊपर से नीचे तक वारीक खुदाई का काम करवाया गया, जिससे उसका सौन्दर्य बढ़ गया।

शिल्प ने सूर्य भगवान के लिये जगमोहन, नट-मंदिर, योग- मंडप अदि बनवाए। उनके लिये नतंकियाँ, गाने-बजाने वाली टोलियाँ, सुन्दर पोशाकें, होरे-मोती जड़े हुए गहने, हाथियों, घोड़ों, गायों और पॉलकियों की व्यवस्था दीवालों पर गढ़ कर की गई। मंजीरे, ढोलक, पखावाज, नृत्य की भाव-मुद्रायें तथा साकार प्रतिमायें भी रेखांकित की गई, जो उल्लास की प्रतीक थी।

तीस फुट की ऊंचाई पर चबूतरा बना कर सूर्य भगवान के सारथी अरुण को मूर्ति भी गढ़ी गई। सूर्य भगवात की पत्नी संज्ञा का भी सुन्दर मन्दिर बनाया गया।

अब विशू अपने निर्माण-कार्य को देखकर बहुत प्रसन्न होता था। लोग उसे महाशिल्पी कहकर पुकारने लगे। वह भी घमंड में फूला न समाता था। गर्व से कहता, मैने पत्थरों में प्राण डाल दिए, उनमें गति पैदा कर दी है। वे सजीव हैं। संसार में कोई व्यक्ति ऐसा निर्माण कार्य नहीं कर सकता है।

मंदिर का काम समाप्त भी न हो पाया था कि शिल्पी का हृदय दंभ से भर गया । उसके मन में यह बात बैठ गई कि संसार में उससे श्रेष्ठतर कारीगर दूसरा नहीं है। किन्तु क्या उसे पूर्ण सफलता मिल गई थी ?

मंदिर तो पूरा हो गया, पर कलश अभी नही रखा गया था। वह बार-बार कलश चढ़ाता ओर वह गिर पड़ता था। कलश छोटा किया गया, फिर भी सफलता नहीं मिली। यह देखकर उसका घमंड चूर-चूर हो गया ।

अपनी इस असफलता के कारण वह बहुत दुखी भी रहने लगा। बारह वर्ष के स्थान पर सोलह लग गये। महाराज ने क्राोधित होकर आदेश दिया कि यदि एक सप्ताह के भीतर कलश नहीं चढ़ाया गया तो वे प्रमुख कारीगरों को कैदखाने में डाल देंगे।

यह सुनकर महाशिल्पी कांप उठा। उनको प्रतिष्ठा देखते ही देखते नष्ट हो गई थी।

एक दिन रात्रि को उसके पुत्र धर्मपद ने कहा, पिता जी, मैं आप से एकांत में कुछ बात करना चाहता हैं।

पिता ने अन्य लोगों को विदा कर पूछा, बताओ, क्या बात है?

पिता जी आप कुछ वर्षाे निर्माण की ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं। शिल्पी को बारीकियों को सुलझाने की ओर आपकी रुचि नहीं रह गई है। आपको आज अपने यश की चिन्ता है। आपके चापलूस साथी आपकी प्रशसा के गीत गाते है और आप उसी में रम कर अपना सही रास्ता भूल गये हैं।

यह सब सुनकर पिता बहुत गुस्सा होकर बोले, धर्मपद, अभी तू ठीक तरह गारा की मिलावट भी नहीं जानता है और मुझे शिक्षा देने के लिये आया है।

पुत्र नम्रता से बोला, पिता जी, आप दुनिया से अलग रह कर पाँच-सात व्यक्तियों से घिरे रहते हैं। में साधारण शिल्पियों ओर मजदूरों से बरावर संबंध बनायें हुए हूँ। हम लोग आपस में कई बातों पर सलाह लेकर उनको सुलझाया करते हैं। आप आज्ञा दें तो में कलश चढ़ाने को व्यवस्था कर दूँ।

महाशिल्पी को यह बात अपमानजनक लगी। वे ताव में बोले, धर्मपद, कल दोपहर तक कलश न चढ़ा सकोगेतो संध्या को मैं तुम्हारा सिर काट कर देवी को भेंट चढ़ा
दूंगा।

धर्मपद चुपचाप लौट आया। अब उसने अपना निश्चय अन्य शिल्पी साथियों को सुनाया। वे सब उसके नेतृत्व की बात सुनकर बहुत प्रसन्न हुए।

दूसरे दिन प्रातःकाल धर्मवद ते अपने साथियों की सहायता से सबसे बड़ा कलश मन्दिर पर चढ़ा दिया था।

महाशिल्पी विशू अपने पुत्र से हार कर अवाक् खड़ा था। वे सोचने लगे कि सच ही है कला तो प्रगतिशील है। एक व्यंक्ति उसे रोक कर नहीं रख सकता है।

काठ का उड़न घोड़ा

मित्रों ! उम्मीद करता हूँ “शिल्पी की देन Hindi Lok Katha | Shilpi Ki Dain ~ Folk Tale in Hindi” आपको अवश्य पसंद आई होगी, कृपया कमेंट के माध्यम से अवश्य बतायें, आपके किसी भी प्रश्न एवं सुझावों का स्वागत है। कृपया Share करें .

Hello friends, I am Mukesh, the founder & author of ZindagiWow.Com to know more about me please visit About Me Page.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *