ज्ञान की महिमा Hindi Lok Katha ! Gyan Ki Mahima

Gyan Ki Mahima

दोस्तों Lok Kathayen लोक कथाएँ/कहानियाँ की श्रृंखला में हम लेकर आये हैं बहुत ही रोचक एवं मजेदार लोक कथा ज्ञान की महिमा Hindi Lok Katha ! Gyan Ki Mahima आइये जानते हैं !

ज्ञान की महिमा Hindi Lok Katha ! Gyan Ki Mahima

प्राचीन काल में वाल्मीकि, कण्व, संदीपनी आदि मुनियों के आश्रम वनों में थे। वहीं ब्रह्मचारी प्रायः अपने गुरू के पास रह कर शिक्षा प्राप्त करते थे। शिष्य गुरु के घर पर जाकर उसी परिवार का सदस्य बन जाता ओर वहाँ पुत्र के समान रहता था. इसी प्रकार समय – समय पर भारतवर्ष में तक्षशिला, नालंदा वल्लभो आदि स्थन पर शिक्षा के बड़े-बड़े केन्द्रों की स्थापना हो गई ।

तक्षशिला में चारों वेदों तथा अठारह शिल्पों की शिक्षा दी जाती थी। नालंदा में बौद्ध वाड्मय के अध्ययन की व्यवस्था के साथ-साथ तर्कशास्त्र, व्याकरण, चिकित्सा आदि विषयों के अतिरिक्त आयुर्वेद की भी शिक्षा दी जाती थी। बल्लभी सुदूर दक्षिण काठियावाड़ में जिस पंडित का विचार वल्लभी विद्वान सही मानते वह अपनी विद्वता के लिये देश भर में प्रसिद्ध हो जाता।

यह विद्यालय राजाओं की सहायता से चलते थे और वह सभी प्रकार की शिक्षा दी जाती थी। देश के पूर्वीय भागों में जनपदों में शिक्षा का कोई अच्छा केन्द्र मे होने के कारण वही के राजाओं ने विद्वानों की सलाह से आसम में नवद्वीप नामक स्थान पर एक शिक्षा केन्द्र को स्थापना की।

धीरे-धीरे पंडितों के बीच नवद्वीप की चर्चा होने लगी। वहदूर-दूर से विद्वान बीहड़ जंगली वटिया महीनों में पार कर पहुँचते थे । जंगली जातियों में तंत्र-मंत्र, जादू-टोना बहुव प्रचलित था। कामरूप के जादू की चर्चा सभी प्रदेशों में होती रहते थी।

ब्रह्मचारी वहाँ कई वर्ष शिक्षा ग्रहण कर लेने के बाद पर पण्डित्य प्राप्त कर अपने-अपने ग्राम तथा नगरों को लौट आते, वहाँ का राजा उनका स्वागत कर उनको अपने दरवार मे विशिष्ट स्थान देता था।

एक बार तीन बहाचारी नवद्वीप से शिक्षा प्राप्त करके अपने नगर को लौट रहे थे। वे कई सप्ताह भयंकर जंगलों के बीच रास्ता तय कर और कन्द-मूल से अपनी भूख मिटा कर गाँव के समीप पहुँचे। उन्होंने निश्चय कर लिया कि वे वहाँ से राजा से मिलेंगे और ठीक व्यवस्था हो गई तो वहीं रह कर शिक्षा और संस्कृति का प्रचार करेंगे।

संध्या हो आईं थी। बस्ती से कुछ दूर हट कर एक वृक्ष केनीचे उन्होंने डेरा डाला। एक व्यक्ति वही रह गया, जबकिदो ब्राह्मण बस्ती में भिक्षा लेने के लिये गये और वहाँ के गृहस्थों से भोजन की वस्तुएँ प्राप्त करके लौट आये।

खा-पीकर वे लोग आपस में कई विषयों की चर्चा करते रहे। वसन्त का मौसम था और चाँदनी रात। कुछ देर बाद चारों ओर मनमोहनीउज्ज्वल छटा छा गई। तीनों को उसने मोह लिया। उन्होंने निश्चय किया कि कुछ देर टहल कर उस वातावरण का सौन्दर्य निहारा जाय।

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अब वे तीनों साथी इधर-उधर टहलने लगे। एक स्थान पर किसी पशु के खुरों की छाप दूर तक चली गई थी। एक ने सावधानी से उनको देख कर कंहा, मित्र लगता है कि भेस इधर से गई है। ऐसा न हो कि वन में कोई हिंसक जानवर हम पर हमला कर डाले।

वे उन निशानों को देखते हुये वन की ओर बढ़ गये। एक जगह भूमि पर नमी थी। उन तीनों में दूसरा वहीं खुरों के निशानों के पास बैठ कर उनका सूक्ष्म निरीक्षण करने लगा।

कुछ देर सोच-विचार कर पाया कि एक ओर चिन्ह गहरे हैं जबकि दूसरी ओर छिछले।

हँस कर कहा, ‘‘शुभ चर्चा है। भैंस गामिन है। उसके बच्चा होने वाला है। निशानों से लगता है कि गर्भ की पीड़ा से परेशान होकर जल्दी-जल्दी इधर से गईं है। उसके पाँव डगमगा रहे थे। उसे गये हुये दो तीन घंटे से हो गये है।

तीसरा ब्राह्मण युवक यह सुन गंभीर होकर बोला, पाँव ठोक ही डगमगाये हैं। समय से दो महीने बाद बच्चा हो रहा है। अब तक वह पाड़ी जन चुकी होगी।

इस भाँति तीनों अपना-अपना मत देकर चुप हो गये। पहले ने कोतुहलवंश कहा ! यह सुझाव दिया कि भेस ढूढ़ी जाय। कुछ दूर आगे जाने पर उनको एक बरगद के पेड़ के नीचे भेंस जुगाली लेती हुई मिली। पाड़ी इधर-उधर उछल-कूद मचा रही थी।

तीनों को इससे बड़ी प्रसन्नता हुईं। उन्होंने मन ही मन अपने गुरु को प्रणाम किया, जिनसे यह ज्ञान प्राप्त हुआ था। अब उनको भरोसा हो गया कि अपनी बुद्धि के बल पर थे जीवन में सफलता पूर्वक प्रवेश कर सकते हैं।

वे आपस में यह चर्चा करके लोट रहे थे कि राजा के सिपाही वहाँ पहुँचे और उनको धमका कर कहा, वाह बेटों, राजा की भेस चुरा कर तुम इस गाँव में ले आये हो। अब अपनी करनी का फल भुगतो।’’

सिपाही उनको पकड़कर ले गये। आगे पाड़ी, फिर भैस और उसके बाद तीनों पंडित। सिपाही उनके पीछे-पीछे चलने लगे।

जब पाड़ी थक जाती तो तीनों ब्राह्मणों को बारी-बारी से उसे लाद कर ले जाना पड़ता था। इस भाँति वे रात भर चलते रहे और अगले दिन दोपहर को राजधानी पहुंचे। तीसरे पहर सिपाहो उनको राज-दरवार में ले गये।

सिपाहियों के नायक ने राजा से फरियाद की, महाराज, एक सप्ताह हुआ ये तीनों चोर राज्य की गोशाला से भैस चुराकर ले गये। एक सप्ताह ढूंढ़ने के बाद कल रात भैस और ये तीनों एक गाँव के पास वाले जंगल में मिले है।

राजा ने तीनों पंडितों की ओर देखा। बिना किसी पुछ-ताछ के फैसला सुनाया, तीनों को चोरी के अपराध में सजा दी जाती है। एक का एक पाँव, दूसरे का एक हाथ और तीसरे का एक कान काट लिया जाए । पन्द्रवें दिन इसके लिये एक विशेष दरबार लगेगा।

बस वे तीनों पंडित जेल भेज दिये गये। उन विद्वानों की समझ में राजा का न्याय नहीं आया। उस पर भी शास्त्रार्थ करने लगे । एक बोला, मित्रों, राजा कुछ वैसा ही है, पुराने सस्कार नहीं गये हैं।

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दूसरे ने तत्काल कहा, तुम ठीक कहते हो। राजा की बुद्धि और सूझ इसकी पूरी-पूरी पुष्टि करती है

तीसरा यह सुनकर हँस पड़ा, महाराजधिराज ने अपने कुल जैसा व्यवहार निभाया। यह विचित्र देश लगता है। राजा और प्रजा दोनों की समानबुद्धि है। यहाँ सब ही बुद्धिमान लगते हैं।

जेल के सिपाही इस चर्चा को सुन कर घबरा गये । उनको लगा कि तीनों पागल हो गये है। राजा ने सजा दी इस बात का इनको दुःल नही है । इन लोगों ने अन्य कैदियों के समान दुबारा न्याय की फरियाद भी नही की है।

यह सोच कर कि अपराधी कोई उपद्रव न कर बैठें वे जेलर के पास गये और उनको पूरी बात सुनाई। जेलर घबरा कर राज दरबार पहुँचा और निवेदन किया कि तीनों मूर्ख पागल हो गए हैं। श्रीमान महाराज आपके विरुद्ध अनर्गल बक रहे है। इससे जेल का
अनुशासन भंग हो गया है। वे तो आपस में ठठा कर खिलखिलाते हुए कह रहे है कि राजा को न्याय करना तक नहीं आता है।

फैसला सूझबूझ का

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राजा ने मंत्री को आदेश दिया कि उन तीनों नालायकों को कल दरवार में लाया जाय।

अगले दिन मंत्री जेलखाने गये और उनकी कोठरी खुलवाई। मंत्री को देखकर वे तीनों खूब हँसे।

एक बोला, राजा की तरह ही यह भी वैसा लगता है।

दूसरा उठा और मंत्री के चारों ओर का चक्कर लगा कर बोला, इनकी भी राजा के समान पूछ नहीं है।

तीसरा खिलखिलाया, वेसींग का है।

इन बातों को सुनकर मंत्री बहुत क्रोधित हुए। उसने सिपाहियो से कहा कि तीनों को मुश्के बाँध कर दरवार में ले चल।

जेलर को आदेश दिया कि दरवार के बाहर वाले मैदान में जल्लाद से तीन सूलियाँ गड़वा दें। अब उनकी ओर क्रोध में काँपते हुए बोले, तुम को वहीं भेज देंगे।

वे सब राजदरबार पहुँच गये। वहाँ तीनों ने राजा को घूर-घूर कर सिर से पाँव तक देखा और मुस्कराएं। उनका अभिवादन तक नहीं किया। तीनों मन में सोच रहे थे, प्राण बचाने की चेष्ठा करनी ही होगी।

महाराज ने तीनों के हाथ खुलवा दिये और क्रोधित होकर कहा, तुम लोगों की बड़ी शिकायतें आई हैं। तुमने चोरी की और सजा दिये जाने पर जेल का अनुशासन भंग कर रहे हो। क्या तुम पागल हो गये हो ? इस प्रकार भौंडी-भौड़ी बातें अन्यथा न करते। तुम सच बातें बता दो, नहीं तो सूली पर चढ़ाये जाओगे।

पंडितों ने सोचा कि प्राणों की रक्षा इस मूर्ख के हाथों होने से रही। इसीलिये सच बात कहकर ज्ञान का परिचय दरबार के लोगों को दे दिया जाय जिससे सभासद अपने राजा के संबंध में परिचित हो सके।

एक ब्राह्मण युवक आगे बढ़ा और राजा के आगे सिर झुका कर कहा, राजन, मैंने जो बात कही उसकाअर्थ होता है कि यहाँ का राजा मनुष्य नहीं, वह तो बैल के समान पशु है। उसे व्यर्थ ही राजगद्दी पर बिठा दिया गया। वह इस पद के योग्य नहीं है।

अब दूसरा ब्राह्मण आगे आया और हँस कर बोला, महाराज, मैंने यह संदेह प्रकट किया कि भाई, यदि वह बैल है तो यहाँ दरबार में क्यों बैठा हुआ है। वह और पशुओं की भाँति जंगल में क्यों नहों छोड़ दिया गया कि वहाँ घास चरता।

राजा ने तीसरे पंडित की ओर देखा तो उसने निवेदन किया, हे राजा, मैंने निर्णय दिया कि वह वज्र मू्ख है। सींग होते तो न जाने क्या-क्या करतव दिखलाता।

राजा ने तीनों की बातें सुनकर विचार किया। आज तक ऐसा ढीेठ व्यवहार उनके साथ किसी ने नहीं किया। और दिनों को बात होती तो वह तीनों की जीभ खीचवा कर बाहर निकलवा देता। वह बड़ी देर तक उन तीनों तेजस्वी व्यक्तियों की ओर देख कर इस नई परिस्थिति पर विचार करता रहा।

काठ का उड़न घोड़ा

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अंत में नम्र होकर उसने पूछा, मूर्खो, तुमने दरबार का अपमान किया है। इसके लिये तुम संध्या को सूली पर चढ़ा दिये जाओगे। लेकिन यह तो बताओ कि, तुम लोगों ने ऐसी बातें कहने की घृप्टता क्यों की है ?

यह सुन कर एक युवक आगे बढ़ा और बोला, महाराज, हम तीनों ब्रह्मचारी सात वर्ष तक नवद्वीप में शिक्षा लेकर घर लोट रहे थे। रास्ते में एक पशु के खुरों के चिन्ह दिख पड़े।

मैंने उनको देखकर बताया कि भैस के हैं। मेरा दूसरा साथी इस पर बोला कि भेंस गाभिन लगती है। यह सुन कर तीसरे मित्र ने बताया कि उसको पाड़ी हुई है। अपनी जिज्ञासा की पूर्ति के लिये हम वन की ओर भैस ढूंढ़ते हुये बढ़े। उसे देख कर प्रसन्न हुये कि हमारा अनुमान सही निकला। उसी समय आपके सिपाहियो ने बिना कुछ पूछे हुए हमें गिरफ्तार कर लिया ओर आपने बिना जाँच किये हुये ही एक तरफ की बात सुनकर हमें चोरी के अपराध में सजा दे दी।

उन तीनों ब्रह्मचारियों का परिचय पाकर राजा को अपने कर्तव्य पर बहुत दुःख हुआ। उसने उन विद्वानों से क्षमा माँगी और प्रार्थना की वे उसकी सभा में रह कर देश में शिक्षा तथा संस्कृति का प्रचार करें। उसने उनके लिये राजधानी में एक शिक्षा-केन्द्र खोल दिया। वहाँ सभी जातियों के लोगों को शिक्षा दी जाने लगी।

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