अकबर-बीरबल के पिछले जन्म की दोस्ती | Akbar Birbal Pichhale Janam Ki Dosti

Akbar Birbal Pichhale Janam Ki Dosti

अकबर-बीरबल की कहानियां किस्से ; Hindi Story of Akbar And Birbal अकबर-बीरबल की कहानियों की श्रृंखला में हम लेकर आये हैं एक और रोचक कहानी “अकबर-बीरबल के पिछले जन्म की दोस्ती | Akbar Birbal Pichhale Janam Ki Dosti” आइये जानते हैं ;

अकबर-बीरबल के पिछले जन्म की दोस्ती | Akbar Birbal Pichhale Janam Ki Dosti

बैजर नामी ग्राम में दो आदमी बड़े मित्र भाव से बसते थे। उनमें एक का नाम पंडित सुशर्म्मा था जो अति विद्वान, सदाचारी तथा गंम्भीर प्रकृति का था। दूसरे मित्र का नाम सुदामा था, जो कर्म का नाई था परन्तु विचार में बड़ा ही न्याय प्रिय था। दोनों की आपस में ऐसी बनती थी कि बिना एक से पूछे दूसरा कोई नया कार्य प्रारम्भ नहीं करता था।

एक दिन अकस्मात सुशर्म्मा के जी में यह बात आई, “हमें कोई ऐसा कर्म करना चाहिये जिससे भविष्य में राज्य ऐश्वर्य का सुख मिले।” इस विचार से प्रेरित होकर उसने सुदामा नामी अपने मित्र से इसकी चर्चा की।

सुदामा ने कहा, “मित्रवर! मेरा धर्म भी यही कहता है कि आपको तपश्चर्या करने की अनुमति दूँ और तपश्चर्या के समय आपका सहयोग कर मैं भी अपना अगला जन्म सवारूँ।”

सुशर्म्मा अपने मित्र को अपनी सम्मति से सहमत देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ और मित्र सुदामा नाई के सहित प्रयाग को चला गया। वहाँ पहुँचकर त्रिवेणी के समीप ही एक छोटी-सी पर्णकुटीर बनवाकर तपश्चर्या में निमग्र हुआ।

सुशर्म्मा ने तन्मय होकर कई वर्षों तक उस पर्णकुटीर में तप किया, परन्तु फिर भी देवताओं की प्रसन्नता न हुई। तब ऐसी तपश्चर्या से उसका मन ऊब गया और उस प्रणाली को बदलकर संन्यास धारण किया। काशाय वस्त्र पहनकर पुनः तप करने में दत्तचित्त हुआ।

सुदामा नाई भी छत्र-छाया की तरह उसकी सेवा करता हुआ अपना धर्म पालन करने लगा। उसका अनुमान था कि संन्यासी की सेवा से मनोभीष्ट फल की प्राप्ति कर लूंगा। दोनों की प्रगाढ़ मैत्री थी। इन्हें आपस के सहयोग से कठिन-से-कठिन कार्य साधन में किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता था।

जब इस ढंग से तप करते हुए भी बारह वर्ष बीत गये कुछ भी हासिल न हुआ-यानी देवता प्रसन्न नहीं हुए-तब इन दोनों को बड़ा दुःख हुआ और एक-दूसरे का मुख देखते हुए इस बात के अनुसन्धान में लगे कि अब कौन-सा यत्र किया जाय कि जिससे अभीष्ट फल की प्राप्ति हो।

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Akbar Birbal Pichhale Janam Ki Dosti

अपने मित्र सुदामा को चुप देखकर संन्यासी बोला, “मित्र सुदामा! तुम भली-भाँति देख रहे हो कि हमें तप साधन करते चौबीस वर्ष का समय बीत गया लेकिन कार्य की सिद्धि न हुई। तब आख़िर ऐसा कौन-सा उपाय किया जाय कि जगत में हमारी अपकीर्ति न हो। मेरे मन में तो यह आता है कि आत्महत्या के अतिरिक्त निवृत्ति का दूसरा मार्ग नहीं है, लेकिन इससे भी मुक्ति नहीं मिलती। इसमें भी एक बात बड़े अड़चन की है।

शास्त्रकारों ने आत्म-हत्या को बड़ा पाप बतलाया है। तब भाई तुम्हीं कोई ऐसी युक्ति निकालो जिससे शास्त्रानुकूल सुख प्राप्त हो। ‘गतानि शोचानि कूतत्र भवन्ने।’ अब बीती बातों की चिन्तना छोड़ आगे के लिये प्रयत्रशील होना चाहिये।”

सुदामा मित्र बोला, “आप पंडित और ज्ञानी हैं, मैं केवल आपका अनुयायी सेवक हूँ। शास्त्रों के आदेश क्या हैं इसका मुझे कोई गम नहीं, तब इसमें आप ही को कोई सोच-विचार कर दूसरा उपाय निकालना चाहिये।”

सुशर्मा बोला, “हाँ एक मार्ग है, परन्तु जबतक तुम उससे सहमत न हो, मैं कैसे कर सकता हूँ। शास्त्रों में ऐसा प्रमाण मिलता है कि जो प्राणी त्रिवेणी के तट पर बैठकर आत्म-विसर्जन करता है उसको आत्महत्या का पाप नहीं लगता, बल्कि अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है।”

सुदामा नाई पंडित सुशर्मा की इस सम्मति से सहमत हो गया और वे अपने सामानों का अलग-अलग दो गठर बनाकर एक जगह गाड़कर चलता हुये।

वहाँ से चलकर जगत जननी भागीरथी के तट पर आये। सुशर्मा के मन में राज-सुख प्राप्ति की कांक्षा थी, इसलिये उसने पृथ्वी मंडल के एकछत्र राज्य प्राप्ति के निमित्त और सुदामा को राज कर्मचारी होने की कांक्षा थी अतएव उसने मंत्री पद की अभिरुचि से त्रिवेणी जी के पवित्र जल में प्राण विसर्जन किए।

वे मरते समय ध्यानमग्र हो ईश्वर से प्रार्थना कर बोले, “भगवन्‌! इसी जन्म के समान अगले जन्म में भी हमारा साथ इसी प्रकार बना रहे और इस समय की सब बातें हमें स्मरण रहें।”

तीर्थराज प्रयाग की भूमि जिसमें त्रिवेणी जल का प्रभाव क्या कहना, उस जल के पुण्य प्रभाव से उनको अभीष्ट सिद्धि मिली।

अगले जन्म में सुशर्मा हुमायूँ बादशाह के घर जन्म लेकर अकबर के नाम से विख्यात हुआ और सुदामा का जन्म उसी नगर के एक कुलीन ब्राह्मण के घर हुआ।

इसके पिता के पुकारने का नाम स्वप्रनाथ था। स्वप्रनाथ का पुत्र बड़ा ही बुद्धिमान और प्रतिभाशाली हुआ, जिस कारण से थोड़े समय में इसने अच्छी विद्या हासिल कर ली। विद्या और बुद्धि के प्रभाव से बादशाह ने इसको दीवान पद पर नियुक्त किया और उसका नाम बदल कर बीरबल रखा।

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