एक जान और 46 हजार मील लम्बा समुद्र | रोमांचकारी, अविश्वसनीय समुद्री यात्रा की कहानी | Incredible Sea Journey Story In Hindi

Incredible Sea Journey Story In Hindi

ऐसे कई लोग हुए जिनको उन्हें कुछ करने की जूनून में हमेशा उत्साहित रखा। कई लोग ऐसे होते हैं जो किसी चुनौती को अस्वीकार नहीं करते -न गगनचुम्बी पहाड़ों की और न ही उफनते तूफानी समुद्रों की। एक ऐसा ही सख्श ‘कप्तान जोशुआ स्लोकम’ जिनका पूरा जीवन ही समुद्रों के गर्व को चूर-चूर करते व्यतीत हुआ था। आज की Hindi Inspiring True Story में Incredible Sea Journey Story को जानेंगे।

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रोमांचकारी, अविश्वसनीय समुद्री यात्रा की कहानी | Incredible Sea Journey Story In Hindi

नोवा स्कोटिया की सबसे ठण्डी जगह नार्थ माउण्टेन में जन्मे जोशुआ के पिता नावों के अच्छे-खासे पारखी थे। इससिए एक नायिक की तबियत उन्हें विरासत में मिली थी।

लगभग 50 वर्ष के समुद्री जीवन के अनुभव के बाद कप्तान जोशुआ ने एक पुरानी नाव ‘स्प्रे’ को मरम्मत करके ठीक किया और उसमें अकेले ही बैठकर सारी दुनिया की परिक्रमा के लिए निकल पड़े।

अपनी 46,000 मीला लम्बी ऐतिहासिक यात्रा में उन्हें भयानक तूफानों, हिंसक आदिवासियों, खूंखार समुद्री जानवरों तथा अनंत प्रतीत होने वाले भयावह एकांत का मुकाबला करना पड़ा।

समय गुज़रा और एक दिन उस ‘स्प्रे’ नामक नाव को बर्वर रेड इण्डियन कबीलों की शिकारी नावों ने घेर लिया। फोर्टेस्क्यू खाड़ी के ये जंगली अपने गले से भयानक आवाजें निकाल रहे थे, जिनका अर्थ था ‘‘तुम्हारे पास जो कुछ है, हमे दे दो। ”

नाव पर दिखाई देनेवाला एक मात्र व्यक्ति चिल्ला-चिल्ला कर जबाव दे रहा था ‘‘नही, नहीं।” लेकिन जंगली अपनी नावो को खेते हुए लगातार ‘स्प्रे’ के करीब लाते जा रहे थे। उन्हें लग रहा था कि केवल एक व्यक्ति पर काबू पाकर वे नाव पर रखी सामग्री लूट सकते हैं।

उन जंगलियो का नेता था ब्लैक पैड़ो, जिसकी कत्ल के कई मामलोमें कानून को तलाश थी। पैड्रो की लम्बी दाढ़ी उसकी पहचान थी। अचानक वह अकेला व्यक्ति नाव पर बने केबिन में घुस गया और इसके कुछ क्षण बाद ही उसका एक साथी केबिन से निकल जंगलियो की नजर में आया।

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थोड़ी ही देर बाद जंगलियो को नाव पर तीसरा नाविक दिखाई दिया। अचानक उने तीन नाविको मे से एक नाविक को पिस्तौल से रेड इण्डियनों की 80 गज दूर रह गई नावो पर फायर करने लगा। जंगलियों के इत्मीनान को तोड़ती हुई दो गोलियों मे से एक पैड़ो के पास से गुजर गई। वह बाल-बाल बचा। नाव पर एक की जगह तीन व्यक्तियों की मौजूदगी और गोलियो के धमाको ने उसका साहस तोड़ दिया। जगलियो ने अपनी नावे वापिस मोड ली।

क्या वास्तव में जंगलियो ने ‘स्प्रे’ पर तीन आदमी देखे थे? नही, यह उनका दृष्टि-भ्रम था और नाव पर सवार अकेले नाविक कप्तान जोशुआ की एक योजना (चालाकी) थी।

जोशुआ जंगलियों को अपने अकेले होने का अहसास नहीं दिलाना चाहते थे, इसलिए वह पहले केबिन मे गए और कपडे बदलकर बाहर निकले। जंगलियो ने उन्हे दूसरा आदमी समझा। तीसरा आदमी लकडी का एक पुतला था, जिसे नाविक के कपडे पहना दिए गए थे। जोशुआ एक डोरी की सहायता से उस नकली नाविक को हिलाते जा रहे थे, जिससे जंगलियों को वह व्यक्ति हिलता-डुलता दिखाई पड़ रहा था।

अगर जोशआ के दिमाग में ब्लैक पैड्रो के लुटेरे कबीले को धोखा देने की यह तरकीब नही आती तो क्या वे 46 हजार मील की समद्री यात्रा कर पाते, जो उन्होंने 24 अप्रैल, सन् 1895 को बोस्टन से 36 फूट लम्बी नौका ‘स्प्रे’ मे शुरू की थी? क्या
वह विश्व के पहंले व्यक्ति बन पाते, जो तीन साल से अधिक समय तक एक छोटी-सी नौका में बैठकर विश्व की समुद्री यात्रा करके 27 जून, सन् 1898 को न्यू पोर्ट, रोड आइलैण्ड पर उतरा था? क्या वह साबित कर पाते कि एक अकेला आदमी समुद्र के भीषण तूफानो, हिसक जीव-जन्तुओं, खूनी रेड इण्डियनों तथा इस सबसे ऊपर डरावने और अंँतहीन लगने वाले एकांत का मुकाबला करके अपने संकल्प और इच्छा के दर्म पर असम्भव को भी सम्भव बना सकता है?

कप्तान जोशुआ स्लोकम धरती पर रहने वाले उन बिरले दुस्साहसियों में से एक थे, जो महासागरों की चुनौती अस्वीकार करना अपना अपमान समझते थे। सन् 1892 की सर्दियों मे जोशुआ को उनके एक मित्र ने वोस्टन आने का निमंत्रण
दिया। जोशुआ को उनका दोस्त एक खेत मे कैनवस से ढकी एक सात वर्ष से बेकार पड़ी नाव दिखाने ले गया।

उस जीर्ण-शीर्ण ढांचे को देखकर 48 वर्षीय जोशुआ के दिमाग मे पहली बार अकेले एक नाव के सहारे सारी दुनिया की सैर करने काविचार आया। उन्होने अपनी कुल्हाडी से पास में खड़े बलूत के पेड को काट डाला और उसके तने से नाव को दुबारा बनाया। बाकी लकड़ी से नाव के सम्पूर्ण ढांचेको नया रूप दिया।

देवदार की लकड़ी के योग से जोशुआ ने नाव को अडिग मजबूती प्रदान की। पूरे मौसम वे अपनी इस नाव से समुद्र में मछलियां पकड़ते रहे ताकि वह नाव समुद्री पानी की आदी हो जाए।

यात्रा आरभ करने के बाद जोशुआ का पहला पड़ाव ग्लाउसेस्टर बंदरगाह थी, जहा उन्होने 15 दिन की अवधि तक यात्रा के लिए जरूरी साजो-सामान की खरीददारी की। उन्हे आगे बढ़ने पर नार्वे एकोरिया में बैस्ट पोर्ट बंदरगाह के पहले एक ऐसा द्वीप मिला, जिसके चारो ओर लाखों मेढक टर्र-टर्र कर रहे थे। उस दीप का नामकरण मेढक दीप करने के बाद जोशुआ पक्षी द्वीप से गुजरे।

नोवा एकोरिया मे अपने स्कूली साथियों से भेट करने का उन्हे सुअवसर मिला। एक सप्ताह आरामकरके उन्होंने अपनी यात्रा के पहले संकट, अंधमहासागर से निबटने के लिए शक्ति जुटाई।

अधमहासागर मे पहला सप्ताह बिना किसी दुर्घटना के बीत गया लेकिन यह शांति भी कुछ कम कप्टदायक न थी। अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए उन्हे चांद से चिल्ला-चिल्ला कर बाते करनी पडी।

अपनी पिछली समुद्री यात्राओं से जोशुआ ने चांद को अपने अकेलेपन का साथी बनाना सीख लिया था। इसके अलावा उन्हें भयानक कोहरे का मुकाबला करना पडा।

एक ओर कोहरे का धुंधलापन उनको आगे देखने मे बाधा डाल रहा था, दूसरी ओर एकांत उनके गुजरे जीवन की यादों को कुरेद रहा था।

अधमहासागर की लहरें जब तेज होती तो नाव को सम्हालने मे उन्हें जो परिश्रम करना पडता, वह उनका मन कुछ देर के लिए जरूर वहला देता लेकिन सागर के शांत होते ही एकाकीपन उन्हे फिर आ घेरता। यह उनके लिए एक नई चुनौती थी।

यह पहली यात्रा थी, जो वह अकेले कर रहे थे। उन्होने अपने बेसुरे गले से गीत गाकर अकेलापन दूर करने की कोशिश की लेकिन थोडी ही देर बाद उन्हे लगा कि उनका बेसुरा गीत समुद्र के कछुओ तक को पसंद नहीं आ रहा है।

वह 10 जुलाई को 12 सौ मील चलकर डेढ़ सौ मील प्रतिदिन की रफ्तार से ‘स्प्रे’ सेबल अंतरीप पहुचें और 20 जुलाई को उन्होंने फेयल द्वीप के होरी बदरगाह पर लंगर डाला।

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जोशुआ ने एक अधिकारी द्वारा उनकी पायलेट सेबा लेने का प्रस्ताव विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया क्योकि इससे उनकी रोमाच में कमी आ जाती। दरअसल एकांत की नई समस्या से जूमने के साथ-साथ जोशुआ ने पिछले दिनों कई द्वीपों के किनारो से गुजरते हुए इस यात्रा के दौरा, आनंद की जो दौलत हासिल की थी, उसे किसी कीमते, पर हाथ से-नही निकलने देना चाहते थे।

24 जुलाई का दिन जोशुआ के लिए नई मुसीबत लेकर आया और आलू बुखारों का मिला-जुला भोजन करने के कारण उनके पेट में भयानक दर्द उठा। पेट के दर्द और तूफान की लहरों से लडते-लड़ते जोशुआ नाव के केबिन केफर्श पर निढाल होकर लेट गए। अगर इस असहाय अवस्था मे उन्हें एक अज्ञात व्यक्ति की मदद न मिलती तो शायद ‘स्प्रे’ को सागर की लहरे खा डालती।

जोशुआ ने नाव की पतवार के पास एक लम्बे व्यक्ति को मौजूद पाया, जो समुद्री डाकुओ की पोशाक पहने था लेकिन उसने अपना परिचय कोलम्बस के जहाजी बेड़े के एक सदस्य के रूप में दिया और यह भी बताया कि वह पिण्टा नामक नौका
का पायलट है और सलाह दी कि जोशुआ को पनीर और आलूबुखारे साथ-साथ नहीं खाने चाहिए थे।

जोशुआ को इस अजनवी मेहमान ने आश्वस्त किया कि जब तक वह ठीक नहीं हो जाते वह ‘स्प्रे’ का संचालन करेगा।

जब तक जोशुआ की हालत बिल्कुल ठीक न हुईं, तब तक वह अज्ञात नाविक उनकी नाव का अत्यधिक कुशलता से सही मार्ग पर चलता रहा।

28 जुलाई से एक दिन एक पहले वह शख्स जिस रहस्यमय ढग से आया था, उसी रहस्यमय ढंगसे चला गया। जोशुआ उसके चले जाने के बाद उसके व्यक्तित्व के बारे मे सोचते रहे। वह स्वप्न था या सत्य? लेकिन किसी न किसी ने तो उनकी मदद की ही थी। इस नाविक का अस्तित्व जोशुआ के लिए उनके लिए शेष जीवन भर एक रहस्य
ही बना रहा।

4 अगस्त तक नाव की रफ्तार को घटाकर 51 मील कर देने वाले तूफान से संघर्ष करते हुए ‘स्प्रे’ ने स्पेन के दर्शन किए और जिब्राल्टर की खाड़ी पार की।

वहां 29 दिन की सफल यात्रा के उपलक्ष में जोशुआ को राजभोज दिया गया।

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जिब्राल्टर के ऐतिहासिक संग्रहालय का भ्रमण करने के बाद उन्हें भावभीनी विदाई मिली, जो सम्भवतः आने वाले खतरो से जूझने के लिए सबसे बड़ी ताकत का काम करने वाली थी।

समुद्री डाकुओं और चोरो के डर से जोशुआ ने भूमध्यसागर, स्वेज नहर, लाल सागर होते हुए पर्व जाने वाला रास्ता बदल कर ‘स्प्रे’ का मूह हार्व अंतरीषयी ओर कर दिया लेकिन यह रास्ता भी इसी प्रकार की विपात्ति से भरा था।

किस्मत बहादुरों का साथ देती है। रास्ते मे क्रूर डाकुओं से भरे हुए स्टीमर से जोशुआ की सागर की लहरो ने रक्षा की। जब स्टीमर उन पर झपट रहा था, तभी लहरों ने उसे जबरन मोड दिया।

दो-तीन सप्ताह कुछ शांति से बीते और 30 सितम्बर को ‘स्प्रे’ ने भूमध्य रेखा को पार किया। 5 अक्टूबर को ब्राजील के बंदरगाह पेरनाम्बुको पर जोशुआ ने लगर डाला और अपने नाविक पत्रकार मित्र डा. पेरेरा के मेहमान बने तथा एक बार फिर 24 अक्टूबर को खाने-पीने का सामान व अन्य आवश्यक सामग्री लाद कर ‘स्प्रे’ ने समुद्र मे तैरना शुरू कर दिया।

अब जोशुआ की नाव 110 मील प्रति घंटे की रफ्तार से चल रही थी। रियोडीजिनेरियो में उन्हे अपने कूछ अन्य मित्रो से फिर उपहार मिले।

15 दिसम्बर को उरुग्वे तक मित्रो की शुभकामनाओं ने किसी संकट को ‘स्प्रे’ के पास नहीं फटकने दिया लेकिन जैसे ही उरुगवे का किनारा दिखा, जोशुआ ने एक भारी गलती कर डाली। समुद्र में आते हुए तूफान से बचकर फौरन लंगर डालने के चककर में रेत के टीले और लहरो मे अंतर न कर पाए। चंद्रमा की रोशनी ने उन्हें और भी धोखा दिया। नाव रेत के टीले मे बुरी तरह घंस गई।

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जोशुआ के बेफिक्रे मिजाज का अदाजा इससे लगाया जा सकता है कि दूसरे दिन रेत के टीले से गुजरने वाले नाविको ने उन्हें वहा आराम से सोता हुआ पाया। इन नाविकों ने कप्तान की नाव को रेत से मुक्त कराया।

जोशुआ की नाव जहां फंसी थी, उस जगह को कास्टिलो कहते हैं। यह जगह उरुग्वे और ब्राजील को बांटने वाली रेखा से सात मील दक्षिण की ओर है।

जोशुआ ने नया साल ब्यूनस आयर्स में अपने पुराने मित्र मुलहल के घर पर मनाया। नए साल की खुशी ने यात्रा की थकान को उतारने मे मदद जरूर की लेकिन उससे आगे की यात्रा के भयानक खतरो के कम होने की कोई उम्मीद न थी। अभी उन्हे बर्बर जंगलियो, समुदी जीव-जंतुओं और इन सबसे ऊपर पागल बना देने वाले दृष्टिभ्रमो का मुकाबला करना था।

जंगलियों को पहली टक्कर मे चतुराई से शिकस्त देने के बाद जोशुआ को उनका दो बार और मुकाबला करना पडा। दूसरी बार तो जगलियो ने उनका पीछा तब छोड़ा, जब वह खाने-पीने की चीजे उन्हें देने के लिए राजी हों गए। फिर भी उन्होंने बंदूक दिखाकर जंगलियों को अपनी नाव पर नही आने दिया।

वे खाने-पीने की चीजें उनकी नाव पर फेंकते रहे। तीसरी बार उनकी रक्षा एक बार फिर प्रकृति ने की। जब जंगली अपने अभियान मे सफल होना ही चाहते थे, तभी हवा के तेज झोके ने जंगलियो की नावों को तितर-बितर कर दिया और ‘स्प्रे’ उनके घेरे से निकल भागी।

वर्षा, तूफान, आक्रामक लहरे और समुद्र शांत होने पर दृष्टिभ्रम। कभी जोशुआ को विशाल समुद्री पक्षी जहाज जैसे लगे और कभी सील मछलियां ब्हेल जैसी। कभी घुंधलका सूखी जमीन का आभास देता।

ऐसे में अगर अपनी इच्छा शक्ति और चौकन्नेपन का इस्तेमाल न करते तो उनके किसी बड़ी दुर्घटना का शिकार होने की पूरी गुंजाइश थी।

तीन रात और तीन दिन तक चलने वाले तूफान की तेजी ने ‘स्प्रे’ को हार्न अंतरीप से बाहर धकेल दिया। जोशआ ने जंगलियों के एक और हमले को झेला। इस बार फिर उनके सामने ब्लेक पैड़ो का दल था। लेकिन इस बार जोशुआ की रायफल काम आई। पैड़ो को गोली के भय से ‘स्प्रे’ पर कूदने का साहस न हुआ।

‘सप्रे’ का भोजन के लालच में पीछा करवी शार्क ब्हेली से भी कप्तान जोशुआ को लोहा लेना पडा। पिलर अंतरीप से आगे बढते हुए नीली पहाड़ियो के पास रहने वाले स्पेनिश और फ्रेंच बोलने वाले लोगों के अतिथि बनते हुए उन्होने प्रशांत महासागर मे प्रवेश किया।

16 जुलाई को सामोआ की राजधानी ओयेगा पहुंचने से कुछ दिन पहले एक रात को उनके तेज भाले ने एक ब्हेल को छेद डाला, जों उनकी नाव को टक्कर मारकर उलट देना चाहती थी।

ओयेगा मे कप्तान को राजा के महल में दावत के लिए बुलाया गया, जिसके जवाब में जोशुआ ने राजा को अपनी नाव में दावत दी। हालांकि दोनो दावती के भोजन के स्तर में कोई मुकाबला नही था, फिर भी जोशुआ ने अपने मेहमानों की भरसक
आवभगत की।

तूफानों और तेज हवाओ से टक्कर लेते हुए वह न्यूसाउथ वेल्स होते हुए न्यूकैसल पहचे।

यह 42 दिन की यात्रा थी। सिडनी के बंदरगाह पर ‘स्प्रे’ कई हफ्ते अपना लगर डाले रही। जोशूआ से मिलने वालों का तांला लगा रहा। उन्हें अनगिनत दावतें दी गईं।

नाविक क्लबो की मानद् सदस्यता भेट करके उन्हे सम्मानित किया गया। गर्मी का मौसम पलक झपकते बीत गया। दिसम्बर के पहले सप्ताह में वह सीधे मारिशस ;हिंद महासागगर होते हुए अपनी जन्म भूमि के लिए रवाना हो गए। बुनडुरो अंतरीप के तट पर खडे लोगो से मुबारकबाद का आदान-प्रदान करके जुशुआ ने बडा दिन मनाया।

आस्ट्रेलिया के उत्तर में खराब मौसम से बचने के लिए उन्होंने तस्मानिया का रास्ता पकड़ा। सोने की खानो के विख्यात इलाके गुजर कर जोशुआा जार्ज टाउन पहुंचे, जहां आस्ट्रेलिया की खोज में अग्रेजो ने सबसे पहले कदम रखा था।

जार्ज टाउन के वासियों ने जोशुआ के स्वागत के एक हाल मे उनका भाषण रखा, जिसे सुनने के लिए दूर-दूर से श्रोता आए। आगे के पडाब डेबन पोर्ट की प्राकृतिक सुंदरता इतनी मोहक थी कि उसने एकबारगी जोशुआ के सैलानी मन को भी भटका दिया लेकिन रोमांच की ललक ने अंत में जीत हासिल की और 16 अप्रैल सन् 1897 को जोशुआ की यात्रा पुनः प्रारंभ हुई।

सर्दियों में मौसम महीने भर साफ रहा। यात्रा मे कोई विध्व नहीं आया। इसका लाभ उठाकर जोशुआ सागर मात्राओं की कहानियां पढते रहे।

26 मई की सुबह ग्लाउसेस्टर द्वीप में हुई। 31 मई को एण्डेवर नदी का दहाना मिला। वहा के समाचार पत्रों ने ‘स्प्रे’ को फुर्र से उडती हुई चिड़िया की संज्ञा दी। आस्ट्रेलिया के खोजी कप्तान कुक के नाम पर रखे कुक टाउन के छोटे से गिरजे मे एक बार फिर अपने सागर अनुभवों से जोशुआ ने आस्ट्रेलियावासियों को आनदित किया।

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जोशुआ का यह भाषण 24 जून को हुआ जब महारानी विक्टोरिया की रजत जयंती धूमधाम से मनाई जा रही थी। इसी दिन वह हिंदमहासागर में अपनी लम्बी यात्रा के लिए रवाना हुए।

थर्सडे द्वीप से चलकर उनकी नाव ने कोरल सागर तथा टोरेस खाड़ी के खतरों को पार किया। क्रिसमस द्वीप से सौ मील दक्षिण-पश्चिम मे जोशुआ को काले बादल दिखे। उन्होने नाव की गति तेज कर दी।

ईस्ट इण्डिया कम्पनी के कप्तान कीलिय द्वारा सन् 1609 में खोजे गए तथा उन्हीं के नाम पर अपना नाम पाने वाले कीलिग द्वीप के नारियल उत्पादक किसानो व नाव निर्माताओं से भेंट करके जोशुआ ने अपनी नाव की मरम्मत कराई।

16 दिन बाद रोडिंग द्वीप के गर्वनर की शाही दावत कबूल करने के पश्चात् वह 19 सितम्बर को मारीशस पहुचे। इस बीच उन्होंने आठ दिन आराम भी किया।

यहां पहुंचकर जोशुआ ने महसूस किया कि उनकी यात्रा का 90 प्रतिशत हिस्सा पूरा हो चुका है लेकिन फिर भी उन्हे लग रहा था कि जैसे अमेरिका अभी बहुत दूर है।

मारीशस से न्यूपोर्ट तक की यात्रा में जोशुआ को सबसे अविस्मरणीय क्षण सेण्ट लेना ; जहां नेपोलियन बोनापार्ट को निर्वासन दिया गया थाद्ध में बिताए गए दिन थे।

द्वीप के गवर्नर ने उन्हे राजभवन में ठहराया। जोशुआ रात भर इस महल के एक कमरे में नेपोलियन के भूत की प्रतीक्षा करते रहे। द्वीप के लोगों का कहना था कि उस कमरे में नेपोलियन का भूत आता है।

रात गुजर गई लेकिन जोशुआ की तमन्ना पूरी नहीं हुई। बाद में उन्होंने लागदड नामक उस बंगले की सैर करके, जिसमें नेपोलियन को कैद किया गया था, सतोष किया।

टोबायों के मूंगे के पहाड़ो से बचते-बचते ‘स्प्रे’ ग्रेनाडा की तरफ बढती रही। ग्रेनाडा से सेण्ट अण्टीगुआ पहुंचने पर जोशुआ का वहा के निवासियों ने भव्य स्वागत किया।

5 जून को ‘स्प्रे’ खुशी से उछलती हुई अपनी अंतिम मंजिल की ओर बढ रही थी। अचानक कप्तान जोशुआ को अपनी लम्बी यात्रा का अंतिम अनुभव हुआ। उनकी नाव अश्व अक्षाश में पहुंच गईं थी, जिससे हवा के अभाव के कारण उनकी नाव का पाल ढीला होकर सिकड गया लेकिन थोड़ी ही देर में हवा फिर चलने लगी और पाल ठीक हो गया। दुनियां की परिक्रमा खत्म हो गयी।

14 नवम्बर सन् 1909 को कप्तान जोशुआ ने एक और रोमांचक यात्रा प्रारंभ की लेकिन जीवन भर सागर को पराजित करते रहने वाला यह महानाविक इस बार सफल नहीं हो सका। जोशुआ हमेशा की तरह स्वागत करती आखो के संतोष तथा हिलते हुए रुमालों के रगीन उछाह के लिए वापिस नहीं लौटे। वे उन्ही लहरों मे खो गए जो उनका जीवन थी।

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