सन्यासी का जवाब ! Old Hindi Story On Raja & Sanyasi

Old Hindi Story On Raja & Sanyasi

दोस्तों ज्ञानवर्धक कहानियों की श्रृंखला में हम लेकर आये हैं बहुत ही रोचक एवं भावनात्मक कहानी जिसमे सन्यासी और गृहस्थ के महत्व को बहुत ही गहनता से बताया गया है। आइये जानते हैं  ज्ञानवर्धक कहानी ‘सन्यासी का जवाब ! Old Hindi Story On Raja & Sanyasi’ जो आपको जरूर पसंद आएगी.

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सन्यासी का जवाब ! Old Hindi Story On Raja & Sanyasi

पुराने जमाने में उत्तरभारत में एक संन्यासी था। वह बडा विद्वान और तपस्वी था। लोग उस की विद्वत्ता की तारीफ करते और उस की दिव्यशक्ति से प्रभावित हो जाते थे। उस के कई शिष्य थे।

एक बार उस राज्य के राजा ने उस सन्यासी को अपने दरबार में बुलवाया।

राजा भी बड़ा विद्वान था। वह सन्यासी की विद्वत्ता की परीक्षा लेना चाहता था।

उस ने सन्यासी का ज़ोरदार स्वागत किया।

सन्यासी ने राजा से पूछा- ‘महाराज’ आपने मुझे यहाँ क्यों बुलवाया है’?

राजा ने बताया -मैंने आप की विद्वत्ता की बात सुनी है। आप बडे महात्मा और दिव्य शक्तिवाले हैं। मैं आप से एक प्रश्न करना चाहता हूँ।

मैंने कई सन्यासियों से यही सवाल किया है। लेकिन मुझे किसी से सन्तोषजनक उत्तर नहीं मिल सका।

सवाल यह है- ‘संन्यास-आश्रम बड़ा है या गृहस्थाश्रम’?

सन्यासी- बस यही सवाल है? मैं इस का ठीक जवाब दे सकता हूँ।

राजा ने कहा – यदि आप यह सिद्ध करें कि संन्यास बडा है तो मैं गृहस्थाश्रम छोडकर संन्यास ग्रहण करूँगा। यदि यह साबित हो जाय कि गृहस्थाश्रम बडा है तो आपको संन्यास छोडकर गृहस्थाश्रम स्वीकार करना होगा।

सन्यासी ने उत्तर दिया – मुझे आपकी शर्त स्वीकार है। लेकिन मेरी भी कुछ शर्ते हैं। क्या आप उन्हे स्वीकार करने को तैयार हैं ?

राजा बोला – मैं तैयार हूँ। शर्ते सुनाइये।

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सन्यासी ने कहा -पहली शर्त यह है कि छः महीने के बाद ही मै इस सवाल का जवाब दूँगा। तब तक मैं जो कुछ करूँ, उस के बारे में आपको मुझ से कुछ नहीं पुछना चाहिये।

दूसरी शर्त यह है कि मैं आपसे जो कुछ करने को कहूँ, तुरन्त आप को उसे करना
होगा।

राजा ने सन्यासी की शर्ताें को मंजूर कर लिया।

संन्यासी वहाँ रहने लगा।

राजा प्रतिदिन सन्यासी के दर्शन करने जाता था।

पांच महीने बीत गये। राजा अधीर हो गया। सोचा-अब एक महीना और है, इसी बीच में यह सन्यासी मेरे सवाल का जवाब कैसे देगा? अभी तक तो कुछ नहीं हुआ हैं।

एक दिन रोज़ की तरह राजा सबेरे सन्यासी के दर्शन करने गया।

संन्यासी ने राजा से कहा- ‘कल सुबह हमें भ्रमण के लिए जाना है। तैयार रहिये। लेकिन आप अपना वेष बदल ले कि कोई आप को पहचान न लें। भ्रमण में दो तीन सप्ताह लगेगे। उस के लिए भी आवश्यक प्रबन्ध कर लीजिये।’

राजा ने यात्रा का सब इन्तजाम किया।

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दूसरे दिन सबेरे सन्यासी ने भी अपना वेष बदल लिया और दोनो निकले।

चलते चलते वे एक राज्य में पहुँचे। वहाँ की राजधानी में उस दिन एक राजकुमारी
का स्वयंवर था। कई राजकुमार आये हुए थे। सन्यासी और राजा भी राजोचित वेष धारण कर स्वयंवर देखने गये।

संन्यासी और राजा स्वयंवर के मण्डप के पास जा बैठे। वहाँ कई राजकुमार बैठे हुए थे। ठीक समय पर राजकुमारी वहाँ पहुँच गयी।

राजकुमारी हाथ में वरमाला लिए एक एक राजकुमार को देखते जाती थी। लेकिन कोई राकुमार उसे पसन्द नही आया।

मण्डप के पास बैठे हुए एक युवक पर उसकी दृष्टि पडी। उस ने दूसरे ही क्षण
वरमाला उस के गले में पहनायी। वह सन्यसी ही था।

संन्यासी ने तुरन्त उस माला को गले से उतार फेका।

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बड़ी जल्दी वहाँ से भाग निकला।

सब लोग यह देखकर चकित हो गये।

राजा भी उस के पीछे भागा।

दोनो एक जंगल में पहुँचे। रात हो गयी थी। दोनों एक पेड़ के नीचे बैठ गये।

राजा को बड़ी भूख लग रही थी। जाडे़ के कारण राजा का शरीर ठिठुर रहा था। राजा को संन्यासी पर गुस्सा आ रहा था। लेकिन शर्तो की वजह से वह चुपचाप बैठा रहा।

थोड़ी देर के बाद सन्यासी ने राजा से पूछा- महाराज, आप को भूख लग रही होगी न?

राजा ने कहा- जी हाँ, बड़ी भूख लग रही है। बड़ी ठण्ठ भी लगती है।

उस पेड़ के घोसले में दो कबूतर आराम से रहते थे। उन्होने राजा और संन्यासी की बातचीत सुनी।

कबूतर ने अपनी कबूतरी से कहा-देखो इन लोगों में एक कैसा दुःखी है। यदि मैं उस की कुछ सेवा कर सकूँ तो अपने जीवन को सफल समझूँगा।

कबूतर उड़ा। उसने कहीं से कुछ आग लाकर वहाँ गिरा दी।

आग पाकर राजा बड़ा प्रसन्न हुआ। वह कुछ पत्तियों और टहनियों को जलाकर तापने लगा।

थोड़ी देर के बाद राजा ने कहा- अब कुछ खाने को भी मिल जाय तो कितना अच्छा हो!

कबूतर ने कबूतरी से कहा-मैं इस आग में गिरकर उस राजा का भोजन बनूँगा।

कबूतरी को बड़ा दुःख हुआ। लेकिन उसने अपने प्रियतम को अपने धर्म का पालन करने से नहीं रोका।

कबूतर तुरन्त आग में गिरा।

राजा घबड़ा गया-एक पक्षी आग में गिरकर छटपटा रहा था।

संन्यासी ने राजा से कहा-‘महाराज, घबड़ाइये नहीं, लीजिये, आप के लिए भोजन भी आ गया।

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खुशी से भूख मिटाइये। राजा ने कबूतर का मांस भून कर खा लिया।’

संन्यासी ने राजा से पूछा – क्या अब भूख मिट गयी?

राजा बोला – अब और भी बढ़ गयी है।

कबूतरी ने यह बात सुनी। उस ने सोचा – मेरे स्वामी के बलिदान से राजा की भूख नहीं मिटी है। अब मुझे भी आत्म-समर्पण करके उन्हें सुखी बनाना चाहिये। अपने स्वामी के त्याग-पथ पर चलना मेरा कर्तव्य है।’

यह सोचकर वह भी आग में गिरी। राजा चक्रित हो गया।

सन्यासी-राजन, लीजिए, आप के लिए और भी आहार आ गया। खाइये और भूख की ज्वाला शान्त कीजिये।

राजा ने कबूतरी का मांस भी खाया। उसकी भूख मिट गयी। वह उस पेड़ के नीचे आराम से सोया।

दूसरे दिन दोनो राजमहल लौट आये।

छठा महीना पूरा होने में एक दिन और रह गया था।

सन्यासी ने उस दिन शाम को राजा से कहा- ‘महाराज, मैं कल यहाँ से जाना चाहता हूँ। अनुमति दे दीजिये।’

राजा बोला -मेरे सवाल का जवाब दिये बिना आप कैसे जा सकेंगे?

सन्यासी बोले -महाराज, मैंने जवाब तो दे दिया है।

राजा-कब?

सन्यासी – उस दिन- उस स्वयंवर के दिन।

राजा घबरा गया। उसे कुछ भी याद नहीं आया।

सन्यासी कहने लगा-राजन, आप को याद नहीं होगा। सुनों, मैं बताता हूँ।

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उस दिन स्वंयवर में मैं चाहता तो मैं एक राजकुमारी पा सकता था, मुझे आधा राज्य भी मिल सकता था। लेकिन मैंने वह सब छोड़ दिया। क्योंकि मेरे दिल में संसार के सुख-भोग की इच्छा नहीं है। इसीलिए मैं वहाँ से भाग निकला। यह है सन्यास।

संसार का सारा सुख खुद आकर गले पडे़ तब भी उसे त्याग देना ही सन्यास है।
उसी प्रकार एक कबूतर और कबूतरी ने आप के लिए अपना आत्मसमर्पण किया था।

आप को भूखा देखकर पहले कबूतर ने आप के लिए अपनी बलि चढ़ाई। उसके बाद कबूतरी ने भी आप के लिए आत्मत्याग किया।

मैंने उन की बातचीत सुनी थी। देखो, गृहस्थाश्रम धर्म का पालन!

अब आप समझ गये होगे कि सन्यासी और गृहस्थ दोनो अपने स्थान पर समान हैं। दूसरों के सुख के लिए आत्मसमर्पण करने को तैयार रहनेवाला सच्चा गृहस्थ है। सन्यासी का भी यही धर्म है।

सन्यासी का जवाब सुनकर राजा का सन्दहे दूर हो गया। उसने अपना जीवन दूसरों के सुख के लिए ही अर्पित किया। उस के राज्य में प्रजा बड़ी सुखी थी।

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