वात, पित्त एवं कफ (त्रिदोष) क्या है और कैसे काम करता है ? Vata Pitta Kapha in Ayurveda

Vata Pitta Kapha in Ayurveda

आयुर्वेद में वात, पित्त एवं कफ ये तीन दोष हैं Vata Pitta Kapha in Ayurveda जो शरीर में पाए जाते हैं । ये त्रिदोष यदि विकृत हो जायें तो शरीर को हानि पहुंचाते हैं और कई मामलों में व्यक्ति की जान भी जा सकती है। यदि यह तीनों वात, पित्त एवं कफ सामान्य रूप से सन्तुलन में रहें तो शरीर की सभी क्रियाओं का संचालन करते हुये शरीर का पोषण करते है.

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त्रिदोष क्या है और कैसे काम करता है ? What is Tridosha (Vata Pitta Kapha in Ayurveda)

Tridosha – Vata Pitta Kapha in Ayurveda आयुर्वेद के अनुसार वात, पित्‍त, कफ इन तीनों को दोष कहते हैं। दोष शब्द को सुनकर आप यह न समझे की यह कोई रोग है, बल्कि इसका अर्थ है की जब वात, पित्‍त, कफ दूषित हो जाते हैं अर्थात जब यह शरीर को हानि पहुंचाने लग जाएँ तो रोग उत्पन्न कर देते हैं। चलिए इन तीनों दोषों के बारे में मन में उठ रहे कुछ सवालों के जबाब को विस्तार से जानते हैं।

वात, पित्त एवं कफ कहाँ पाए जाते हैं ?

वात, पित्त, कफ शरीर के सभी भागों में रहते हैं, लेकिन विशेष रूप से वात नाभि के नीचे वाले भाग में, पित्त नाभि और हृदय के बीच में एवं कफ हृदय से ऊपर वाले भाग में रहता है।

आयु के अनुसार वात, पित्त एवं कफ कैसे काम करता है ?

बाल्यावस्था में कफ का असर होता है। युवा अवस्था में पित्त का असर होता है और आयु के अन्त में अर्थात वृद्धावस्था में वायु (वात) का प्रकोप होता है |

इसी तरह दिन के प्रथम पहर अर्थात सुबह के समय कफ का प्रभाव -होता है। दिन के मध्य में पित्त का प्रभाव होता है। दिन के अन्त में वात काप्रमाव होता है। सुबह कफ, दोपहर को पित्त और शाम को वात (वायु) का असर होता है।

Vata Pitta Kapha in Ayurveda (Tridosha)

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विश्लेषण : जब व्यक्ति बाल्यावस्था में होता है, उस समय कफ की प्रधानता होती है। बचपन में मुख्य भोजन दूध होता है। बालक को अधिक चलना-फिरना नहीं होता है।

बाल्यावस्था में किसी भी तरह की चिन्ता नहीं होती है । अतः शरीर में स्निग्ध, शीत जैसे युणों से युक्त कफ” अधिक बनता है। युवा अवस्था में शरीर में धातुओं का बनना अधिक होता है, साथ ही रक्त का निर्माण अधिक होता है । रक्त का निर्माण करने में पित्त की सबसे बड़ी भूमिका होती है। युवा अवस्था में शारिरिक व्यायाम भी अधिक होता है | इसी कारण भूख भी अधिक लगती है। ऐसी स्थिति में पित्त की अधिकता रहती है । युवा अवस्था में पित्त का बढ़ना बहुत जरूरी होता है। यदि पित्त ना बढ़े तो शरीर में रक्त की कमी हो जायेगी और शरीर को पुष्ट करने वाली धातुओं का भी निर्माण नहीं होगा।

पित्त के क्या प्रभाव हैं ?

पित्त के गुण हैं – तीक्ष्ण, उष्ण

वृुद्धा अवस्था में शरीर क्षय होने लगता है । सभी धातुयें शरीर में कम होती जाती है । शरीर में रूक्षता बढ जाती है। ऐसी स्थिति में शरीर में वायु (वात) का प्रभाव बढ़ जाता है। वायु का गुण रूक्ष एवं गति है।

समय विभाजन के अनुसार दिन के प्रथम प्रहर में शीत या ठंड की अधिकता होती है। इसके कारण शरीर में थोड़ा भारीपन होता है। इसी कारण कफ में वृद्धि होती है।

दिन के दूसरे प्रहर में और मध्यकाल में सूर्य की किरणें काफी तेज हो जाती हैं। गर्मी बढ़ जाती है। इस समय पित्त अधिक हो जाता है। अतः दिन के दूसरे प्रहर एवं मध्यकाल में पित्त प्रबल होता है।

वात (वायु) के क्या प्रभाव हैं ?

दिन के तीसरे प्रहर और सांयकाल सूर्य किरणों के मन्द हो जाने के कारण वायु का प्रभाव बढ़ता है । इसी तरह रात्रि के प्रथम प्रहर में कफ की वृद्धि होती हैं । रात्रि के दूसरे प्रहर में वात (वायु) की दृद्धि होती है| चूंकि रात्रि के तीसरे प्रहर या अन्तिम प्रहर में वातावरण में भी शीतल वायु बहती है, अतः शरीर के इसी वायु के सम्पर्क में आ जाने से शरीर में भी वायु बढ़ जाती है।

कफ के क्या प्रभाव हैं ?

जल और पृथ्वी तत्वों का योग है ‘कफ’ ! यह छाती क्षेत्र में स्थित होता है। यह जैव-ऊर्जा जीव के लिए संरचना-निर्माण सिद्धांत है और विशेष रूप से सामंजस्य, स्थिरता और ऊर्जा भंडारण से जुड़ा है।

यह दोष शरीर की मजबूती और इम्युनिटी क्षमता बढ़ाने में सहायक है। इसलिए शरीर में कफ का संतुलित अवस्था में रहना बहुत ज़रूरी है। कफ शरीर को पोषण देने के अलावा बाकी दोनों दोषों (वात और पित्त) को भी नियंत्रित करता है। इसकी कमी होने पर ये दोनों दोष अपने आप ही बढ़ जाते हैं।

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खाने-पीने के समय का वात, पित्त, कफ के साथ्ज्ञ मेल

अम्ल और क्षार के संयोग से भोजन मधुर (मृदु) होता है। भोजन के मधुर होने से ही आमाशय में कफ की वृद्धि होती है। भोजन जब आमाशय से आगे चलता है तो फिर पित्त की क्रिया शुरू होती है। इस पित्त के बढ़ने से अग्नि प्रदीप्त होती है, जो भोजन को जलाकर रस में बदल देती है। भोजन के रस में बदल जाने के बाद ही इसमें से मांस, मज्जा, रक्त, वीर्य, मल-मूत्र आदि बनते हैं और इस स्तेर पर वायु की अधिकता होती है। इस वायु के कारण ही मलं-मूत्र का शरीर से निकलना होता है।

Tridosha – Vata Pitta Kapha in Ayurveda – इसी तरह खाने-पीने के समय का वात, पित्त, कफ के साथ्ज्ञ मेल है। खाने को खाते समय कफ की मात्रा शरीर में अधिक होती है। खाने के बाद ‘जेब भोजन के पाचन की क्रिया शुरू होती है, उस समय पित्त की प्रधानता रहती है। भोजन में पाचन के बाद वायु की प्रधानता होती है। भोजन कफ के साथ ही मिलकर आमाशय में पहुँचता है। मुंह में बनने वाली. लार क्षारीय होती है । आमाशय में जो स्त्राव होता है, वह अम्लीय है। अतः भोजन को खाते समय लार भोजन के साथ मिलकर आमाशय में पहुंचती है, जहाँ उसमें अम्ल मिलता है।

इस तरह शरीर में प्रतिदिन प्राकृतिक रूप से वात, पित्त, कफ में बृद्धि होती रहती है। यह प्राकृतिक बृद्धि ही हमारे शरीर की रक्षा करती है। इस प्राकृतिक तरीके से होने वाली वात, पित्त, कफ की वृद्धि शरीर में बाधा उत्पन्न नहीं करती है, बल्कि
शरीर की क्रियाओं में मदद रूप होती है। इसके विपरीत जब॑ गलत आहार-विहार के कारण वात, पित्त, कफ में वृद्धि होती है, तब शरीर कों हानि होती है और बीमारियाँ होती जाती हैं।

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यदि शरीर में वात दोष की प्रधानता होती है तो क्या होता है ?

यदि शरीर में वात आदि दोषों की प्रधानता होती है तो उसका जठराग्नि पर प्रभाव पड़ता है। यदि वायु विषमगति हो जाये तो पाचन क्रिया कभी नियमित और कभी अनियमित हो जाती है।

यदि शरीर में पित्त दोष की प्रधानता होती है तो क्या होता है ?

पित्त अपने तीक्ष्ण गुणों के कारण अग्नि को तीव्र कर खाये हुये आहार को समय से पहले ही पचा देता है। कफ अपने मृदु गुण के कारण अग्नि को मृदु बनाकर उचित मात्रा में खाये हुये आहार का सम्यक पाचन नियमित समय मैं नहीं कर पाता है। यदि वात, पित्त और कफ तीनों समान मात्रा में रहें तो उचित मात्रा में खाये हुये आहार का निश्चित समय से पाचन हो जाता है।

वात की वृद्धि से मलाशय पर क्या प्रभाव पड़ता है ?

मलद्वार में क्रूरता बढ़ती है। इससे मलत्याग देरी से होता है। पित्त की वृद्धि से मलाशय मृंदु होता है। कफ की वृद्धि से यही मलाशय मध्ये होता है। यदि वात, पित्त कफ समान हैं, तो मलाशय एवं मलद्वार मध्य होता है।

यदि कोई व्यक्ति वात प्रकृति का है या उसको पेट में वायु का ‘ प्रभाव बढ़ गया है तो उसका कोष्ठ क्रूर होगा। अर्थात उस व्यक्ति को मलत्याग देरी से होगा । इसी को कोष्ठवृद्धता भी कहते है। इसको ठीक करने के लिये औषधि की जरूरत होती है | ऐसी औषधि जो वात को कम करे और पित्त को बढ़ाये।

पित्त की वृद्धि से मलाशय पर क्या प्रभाव पड़ता है ?

जैसे ही पित्त बढ़ता है, वैसे ही कोष्ठ मृदु हो जाता है। कोष्ठ मूदु हो जाये तो मलत्याग आसान हो जाता है। मलत्याग आसान करने के लिये दूध, त्रिफलाचूर्ण बहुत अच्छी औषधियाँ हैं । मलत्याग करना सबसे अधिक आसान-तभी होता है, जब वात, पित्त, कफ समान हों या सम हों।

गर्भ उत्पत्ति के समय, जन्म के प्रारम्म काल में शुक्र और आव में जिन दोषों की अधिकता रहती है, उसी के अनुसार जन्म लेने वाले बालक की प्रकृति बनती है।

सबसे उत्तम प्रकृति मानी जाती है : वायु प्रकृति नहीं हों, पित्त प्रकृति मध्य हो और कफ प्रकृति हो ऐसे व्यक्ति उत्तम माने जाते हैं ।

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Tridosha – Vata Pitta Kapha in Ayurveda वात, पित्त एवं कफ को मिलाकर क्या प्रभाव पड़ता है ?

दो प्रकृति को मिलाकर भी मनुष्य प्रकृतियाँ बनतीं हैं । जैसे वात एवं पित्त को मिलाकर वात पित्त्त प्रकृति बनती है । इसी तरह वात और कफ को मिलाकर वातकफज़ प्रकृति बनती है। पित्त और कफ को मिलाकर पित्तकफज प्रकृति बनती. है। सबसे अच्छी प्रकृति के मनुष्य वे होते हैं, जिनके शरीर मेंवात, पित्त और कफ तीनों सम होते हैं । अर्थात जिसमें वात, पित्त, कफ तीनों दोषोंकी समानता है, वह स्वस्थ है।

आयुर्वेद में तीनों दोषों में साम्यता को स्वस्थ होने का आधार माना है। इन तीनों दोषों को मिलाकर 7 अन्य प्रकृतियाँ बनती हैं। ये अन्य 7 प्रकृतियाँ रोगों का अधिक कारण बनती हैं। बचपन से ही जिसकी वात प्रकृति है, उसे ऐसे खान-पान से बचना चाहिए तो वायु को बढ़ाता हो | इसी तरह जिसकी पित्त प्रकृति बचपन से है, उसे ऐसे खान-पान से बचना चाहिए, जो पित्त को बढ़ाता हो। यदि किसी की बचपन से कफ प्रकृति है तो उसे ऐसे खान-पान से बचना चाहिए जो कफ को बढ़ाक देता हो। वात प्रकृति के व्यक्ति को सूखे वातावरण से और ठण्डे स्थानों से बचना चाहिए। पित्त प्रकृति के व्यक्ति को गरम तासीर की वस्तुओं के खान-पान से बचना चाहिए। कफ प्रकृति वालों को भारी और चिकनाई युक्त वस्तुओं के खान पान से बचना चाहिए।

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