शिव पुराण द्वारा बताये गए भोग और मोक्ष प्राप्ति के 10 मार्ग Bhog aur Moksha Prapti Ke Marg

Bhog aur Moksha Prapti

प्रेत्यक व्यक्ति की यही कामना रहती है की इस जीवन में उसे सभी सुख प्राप्त हों और मृत्य के उपरान्त मोक्ष की प्राप्ति हो। परन्तु न जो उसे अपने पूरे जीवन में सुख की प्राप्ति होती है और न ही मृत्यु उपरान्त मोक्ष की। तो इस आर्टिकल में हम शिव पुराण द्वारा बताये मार्ग को बताएँगे “Bhog aur Moksha Prapti Ke Marg” जिसका पालन करके कोई भी मनुष्य एक साथ भोग तथा मोक्ष दोनों फलों की प्राप्ति कर सकता है।

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भोग और मोक्ष प्राप्ति के 10 मार्ग
Bhog aur Moksha Prapti Ke Marg

इस संसार में रहने वाले प्रत्येक मनुष्य की बस यही कामना होती है कि जीते जी कुछ संसार के समस्त प्रकार के सुख मिले और मरने के बाद उसे मोक्ष की प्राप्ति हो किंतु सभी के साथ ऐसा नहीं हो पाता है जीते जी तो इन्हें दुख मिलते ही हैं अपितु मरने के बाद भी इन्हें मोक्ष नहीं मिल पाता है। इसलिए शिव पुराण में भोग और मोक्ष दोनों प्राप्ति के मार्ग बताये हैं जिनका पालन करके कोई भी मनुष्य एक साथ भोग तथा मोक्ष दोनों फलों की प्राप्ति कर सकता है तो आइए इन 10 मार्ग को जानते हैं –

Bhog aur Moksha Prapti Ke 10 Marg

1. धन संग्रह :

धन हमेशा सही रास्ते पर चलकर कमाना चाहियें और उसका संग्रह करना चाहियें। अपने धन को तीन भागों में बाटना चाहियें जिसमे पहला भाग धन वृद्धि (Investment) में, दूसरा भाग धार्मिक और परोपकारिक कार्यों में और तीसरा भाग अपने जीवन यापन में खर्च करना चाहियें।

2. क्रोध का त्याग :

क्रोध व्यक्ति का सबसे बड़ा दुश्मन है। अपने क्रोध और आवेश में अक्सर हम वो बाते बोल जाते हैं जिसका बाद में हमें पछतावा ही होता है। इसलिए क्रोध कभी नहीं करना चाहिए और न ही क्रोध उत्पन्न करने वाले वचन बोलने चाहिए। क्रोध से विवेक नष्ट हो जाता है और विवेक के नष्ट होने से जीवन में कई संकट खड़े हो जाते हैं।

3. भोजन का उपवास :

जिस प्रकार भोजन से शक्ति प्रदान होती है उसी तरह व्रत (उपवास) से भी शक्ति का संचार होता है। इसलिए हफ्ते में एक दिन तो व्रत रहना चाहियें। यदि न रह पाएं तो शिवरात्रि का व्रत तो रखना चाहियें। इससे भगवान शिव की कृपा बनी रहती है। शिवरात्रि व्रत करने से व्यक्ति को भोग एवं मोक्ष दोनों ही प्राप्त होते हैं और महान पुण्य की प्राप्ति होती है। पुण्य कर्मों से भाग्य उदय होता है और व्यक्ति सुख पाता है।

4. संध्याकाल का समय :

सूर्यास्त का समय यानि शाम का समय भगवान ‍’शिव’ का समय होता है। इस समय शिव अपने तीसरे नेत्र से त्रिलोक्य (तीनों लोक) को देख रहे होते हैं और वे अपने नंदी गणों के साथ भ्रमण कर रहे होते हैं। इसलिए इस समय व्यक्ति को सत्कर्म करने चाहियें। पूजा-पाठ, सत्सग, या दान पुण्य करना चाहियें। संध्याकाल में यदि कोई व्यक्ति कटु वचन कहता है, कलह-क्रोध करता है, सहवास करता है, भोजन करता है, यात्रा करता है या कोई पाप कर्म करता है तो उसका घोर अहित होता है।

5. सत्य बोलना :

सत्य हमेशा विजयी होता है। सत्य बोलने वाले का चित्त शांत रहता है जबकि असत्य बोलने वाले का चित्त विचलितय। असत्य बोलना या असत्य का साथ देना सबसे बड़ा अधर्म है। इसलिए सदैव सत्य बोलिये क्योंकि सत्य बोलना मनुष्‍य के लिए सबसे बड़ा धर्म है।

6. निष्काम कर्म :

किसी भी परिणाम की इच्छा किया जाने वाला कार्य निष्काम कर्म कहा जाता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने कर्म करने पर ध्यान देना चाहियें न की उसकी होने वाले परिणाम पर। यदि हम कार्य करने से पहले ही परिणाम के बारे में चिंता करने लगेंगे तो कार्य कभी ही भली प्रकार से नहीं हो पायेगा।

7. अनावश्यक इच्छाओं का त्याग :

हमें अनावश्यक वस्तुओं का त्याग करना चाहिए, क्योंकि हमारी अनावश्यक इच्छाएं ही हमारे दुखों को सबसे बड़ा कारण है। मनुष्य की अनैतिक इच्छाएं क्रोध, काम, ईर्ष्या और अहंकार को जन्म देती हैं। अनैतिक इच्छा हमारे मन को विचलित करती है। जो व्यक्ति अनावश्यक इच्‍छाओं के जाल में फंस जाता है वो अपना जीवन नष्ट कर लेता है। अत: अनावश्यक इच्छाओं को त्याग देने से ही महासुख की प्राप्ति होती है।]

8. मोह का त्याग :

मोक्ष की प्राप्ति के लिए सांसारिक मोह माया का त्याग जरूरी है। इस दुनियां में प्रत्येक मनुष्य को किसी न किसी वस्तु, व्यक्ति या परिस्‍थिति से आसक्ति या मोह हो जाता है और यही मोह भय और पीड़ा को जन्म देता है। मोह मनुष्य में विवेक को जागृत नहीं होने देता। इसलिए मोह माया को त्याग जरूरी है।

9. सकारात्मक कल्पना :

शिव जी कहते हैं कि कल्पना ज्ञान से भी अधिक महत्त्व रखती है। जो व्यक्ति जैसा विचार और कल्पना करता है वो वैसा ही हो जाता है। ध्यान करें सकारात्मक सोच रखें और जब भी करें अच्छी कल्पना ही करें।

10. पशु नहीं आदमी बनो :

मनुष्य का जन्म लिया है तो मनुष्य बनों न की पशुओं जैसा व्यवहार करों। मनुष्य में जब तक राग, द्वेष, ईर्ष्या, वैमनस्य, अपमान तथा हिंसा जैसी वृत्तियां रहती हैं, तब तक वह इंसान नहीं बल्कि एक पशु के समान है। जो पशु है वो अपने पशु कर्म करता है लेकिन मनुष्य को तो मानव कर्म और व्यव्हार करना जरूरी है।

सुखी और सफल जीवन के लिए अनमोल ज्ञान की बातें

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