भक्ति के महान आचार्य ‘रामानुजाचार्य’ का जीवन परिचय

Ramanujacharya

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Ramanujacharya Biography Hindi

विशिष्टाद्वैत वेदान्त के प्रवर्तक रामानुजाचार्य जी एक ऐसे वैष्णव सन्त थे जिनका भक्ति परम्परा पर बहुत गहरा प्रभाव रहा। श्री रामानुजाचार्य बड़े ही विद्वान और उदार थे। उन्हें कई योग सिद्धियां भी प्राप्त थीं। आइये Ramanujacharya के जीवन के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातों को जानते हैं –

भक्ति के महान आचार्य ‘रामानुजाचार्य’

Ramanujacharya

भारत की भूमि वो पवित्र भूमि है जिसपर कई संत-महात्माओं ने जन्म लिया। उन्हीं महान संतों में श्री रामानुजाचार्य जी का नाम होना गौरव की बात है जिन्होंने अपने सत्कर्मों द्वारा लोगों को धर्म की राह से जोड़ने का कार्य किया।

श्री रामानुजाचार्यजी का जीवन परिचय (Biography of Shri Ramanujacharya Ji)

हिन्दू मान्यताओं के अनुसार श्री रामानुजाचार्यजी का जन्म सन् 1017 में श्री पेरामबुदुर (तमिलनाडु) के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम केशव भट्ट था। जब उनकी आयु बहुत छोटी थी, तभी उनके पिता का देहावसान हो गया था।

बचपन में उन्होंने कांची जाकर अपने गुरू यादव प्रकाश से वेदों की शिक्षा ली। इनकी बुद्धि इतनी कुशाग्र थी कि ये अपने गुरु की व्याख्या में भी दोष निकाल दिया करते थे। जिसके कारण इनके गुरु ने इन पर प्रसन्न होने के बदले ईर्ष्यालु होकर इनकी हत्या की योजना तक बना डाली पर ईश्वर की कृपा से उन्हें कुछ नहीं हुआ।

16 वर्ष की उम्र में ही श्रीरामानुजम ने सभी वेदों और शास्त्रों का ज्ञान अर्जित कर लिया और 17 वर्ष की उम्र में उनका विवाह संपन्न हो गया।

वेदांत का इनका ज्ञान थोड़े समय में ही इतना बढ़ गया कि इनके गुरु यादव प्रकाश के लिए इनके तर्कों का उत्तर देना कठिन हो गया। रामानुज की विद्वत्ता की ख्याति निरंतर बढ़ती गई।

श्री रामानुजाचार्य जी की आध्यात्मिक यात्रा (Spiritual journey of Shri Ramanujacharya)

“रामानुजाचार्य आलवार सन्त यमुनाचार्य के प्रधान शिष्य थे। गुरु की इच्छानुसार रामानुज से तीन विशेष काम करने का संकल्प कराया गया था – ब्रह्मसूत्र, विष्णु सहस्रनाम और दिव्य प्रबन्धम् की टीका लिखना। उन्होंने गृहस्थ आश्रम त्याग कर श्रीरंगम् के यतिराज नामक संन्यासी से सन्यास की दीक्षा ली।”

श्रीरामानुजाचार्य बड़े ही विद्वान और उदार थे। हिन्दू पुराणों के अनुसार श्री रामानुजम जी का जीवन काल लगभग 120 वर्ष लंबा था। रामानुजमजी ने लगभग नौ पुस्तकें लिखी हैं।

कांची में रहने और शास्त्रों को पढ़ाने के दौरान, उन्हें एक बार यमुनाचार्य नाम के एक महान वैष्णव ने दर्शन दिए। इस श्रेष्ठ व्यक्तित्व को देखकर, रामानुजाचार्य ने उन्हें अपना गुरु स्वीकार किया और दीक्षा ली।

यमुनाचार्य के वापस श्री रंगम चले जाने के बाद, जहाँ से वे आए थे, रामानुजाचार्य ने और भी अधिक दृढ़ता के साथ उपदेश देना शुरू किया और मायावादी दर्शन को नष्ट करते हुए, दूर-दूर तक प्रभु के व्यक्तिगत रूप का गौरव बढ़ाया।

कुछ समय बाद, उन्हें अपने गुरु के अस्वस्थ होने की खबर मिली और वो उनसे मिले के लिए श्री रंगम की ओर चल दिए। लेकिन उनके पहुंचने से पहले ही उनके गुरु ने इस दुनिया को विदा कर दिया। वहाँ पहुँचने पर, वह अपने गुरु के दिव्य रूप के बगल में बैठ गए।

उन्होंने अपने गुरु को देखा जिसका एक हाथ योग मुद्रा में था, जिसके तीन अंगुल खुले थे और अंगूठे और तर्जनी एक दूसरे को छू रही थी, और दूसरा हाथ मुट्ठी में बंधा हुआ था। उनके सभी शिष्य इस का अर्थ समझने में असमर्थ थे।

अपने आदरणीय गुरु के हाथों की यह संकेत देखकर, उन्होंने घोषणा की कि वे सामान्य रूप से लोगों को आश्रय देंगे और भगवान नारायण के चरण कमलों का आश्रय लेंगे और परम सत्य के रूप में सर्वोच्च भगवान को स्थापित करने वाले वेदांत सूत्र पर एक टिप्पणी लिखेंगे। वह उसी नाम के महान ऋषि के सम्मान में अपने एक शिष्य पाराशर का नाम रखेगा। इन तीन उद्घोषणाओं में से प्रत्येक के साथ, गुरु की एक मुट्ठी खुल गई, जो दर्शाता है कि ये उनके गुरु की इच्छाएं और निर्देश थे।

इसके बाद, रामानुजाचार्य को ‘श्री रंगम मंदिर’ के लिए आचार्य के रूप में स्वीकार किया गया और उन्होंने तीनों उद्घोषणाओं को पूरा करते हुए, दूर-दूर तक प्रभु की महिमा का प्रचार किया।

इनके गुरु श्रीयादव प्रकाश को अपनी पूर्व करनी पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ और वे भी संन्यास की दीक्षा लेकर श्रीरंगम चले आये और श्रीरामानुजाचार्य की सेवा में रहने लगे। आगे चलकर उन्होंने गोष्ठीपूर्ण से दीक्षा ली।

गृहस्थ जीवन का त्याग (Renunciation of Household life)

श्रीरामानुजाचार्य अंततः गृहस्थ जीवन त्याग दिया और संन्यास ले लिया, भगवा वस्त्र दान कर और एक त्रिदंडा धारण किया। उन्होंने अपने जीवन के माध्यम से कई आश्चर्यजनक अतीत का प्रदर्शन जारी रखा और नास्तिकता से दुनिया के उद्धारकर्ता थे।

महान गुरु एवं संत श्री रामानुजाचार्य जी (Great Guru and Saint Shri Ramanujacharya)

मैसूर के श्रीरंगम से चलकर रामानुज शालग्राम नामक स्थान पर रहने लगे। रामानुज ने उस क्षेत्र में 12 वर्ष तक वैष्णव धर्म का प्रचार-प्रसार किया। फिर उन्होंने वैष्णव धर्म के प्रचार के लिए पूरे देश का भ्रमण किया।

120 साल तक भारत की धरती पर रहने के बाद, उन्होंने आध्यात्मिक राज्य में वापस जाने और वहाँ प्रभु के लिए अपनी सेवा जारी रखने का फैसला किया। शिष्यों के बीच घोर संताप फ़ैल गया और सभी उनके चरण कमल पकड़कर अपने इस निर्णय का परित्याग करने की याचना करने लगे।

इसके तीन दिन पश्चात श्री रामानुजाचार्य शिष्यों को अपने अंतिम निर्देश देकर इस भौतिक जगत से श्रीरामानुजाचार्य सन् 1137 ई. में ब्रह्मलीन हो गए।

श्री रामानुजाचार्य द्वारा अपने शिष्यों को दिए गए अन्तिम निर्देश : 

  • सदैव वेदादि शास्त्रों एवं महान वैष्णवों के शब्दों में पूर्ण विश्वास रखो ।
  •  भगवान् श्री नारायण की पूजा करो और हरिनाम को एकमात्र आश्रय समझकर उसमे आनंद अनुभव करो। 
  • भगवान् के भक्तों की निष्ठापूर्वक सेवा करो क्योंकि परम भक्तों की सेवा से सर्वोच्च कृपा का लाभ अवश्य और अतिशीघ्र मिलता है ।
  • काम, क्रोध एवं लोभ जैसे शत्रुओं से सदैव सावधान रहो, हमेशा बचकर रहो। 
  • अपनी इंद्रियों के दास मत बनो बल्कि इन्हें वश में रखो। 

रामानुजाचार्य के अनुसार भक्ति का अर्थ पूजा-पाठ, किर्तन-भजन नहीं बल्कि ध्यान करना, ईश्वर की प्रार्थना करना है। आज के समय में भी रामानुजम की उपलब्धियां और उपदेश उपयोगी हैं।

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