कोई ख़ामोश ज़ख़्म लगती है …
ज़िंदगी एक नज़्म लगती है !
सफल रिश्तों के बस यही उसूल है,
बातें भूलिए जो फिजूल है !
उलझने भी मीठी हो सकती है…
जलेबी इस बात की ज़िंदा मिसाल है !
ज़िन्दगी सारी उम्र संभालती रही दो पाँव पर,
मौत ने आते ही कहा, मुझे चार कंधे चाहिए !
कोई ख़ामोश ज़ख़्म लगती है
ज़िंदगी एक नज़्म लगती है !
मुख़्तसर सा गुरूर भी ज़रूरी होता है
जीने के लिए
ज़्यादा झुक के मिले तो
दुनिया पीठ को पायदान बना लेती है
खुली किताब के सफ़्हे उलटते रहते हैं
हवा चले न चले दिन पलटते रहते है !
इतना क्यों सिखाए जा रही हो ज़िन्दगी…
हमें कौन सी सदियां गुज़ारनी है यहाँ !
आहिस्ता चल ए ज़िन्दगी
कुछ क़र्ज़ चुकाने बाकी है
कुछ के दर्द मिटाने बाकी है
कुछ फ़र्ज़ निभाने बाकी है
बहुत ही सुन्दर रचना ।